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रविवार, 3 अगस्त 2014

ये 'तथाकथित' क्यों हो गए हैं...!

      आजकल एक विवाद छिड़ा हुआ है...लाउडस्पीकर को लेकर...तथाकथित हिन्दू और तथाकथित मुसलामानों के बीच में...! यहाँ ‘तथाकथित’ शब्द का प्रयोग मैंने जानबूझ कर किया है...कारण..! वास्तव में न कोई हिन्दू हिन्दू है..! और न कोई मुसलमान मुसलमान है..! जो स्वयं को तथाकथित हिन्दू कहता है वह असल में तथाकथित मुसलामानों के सामने ही ऐसा कहता है..और तथाकथित मुसलमान भी तथाकथित हिन्दुओं के सामने ही अपने को मुसलमान कहते हैं...इसी में तथाकथित सारे विवादों का रहस्य छिपा हुआ है... यह नया-नया लाउडस्पीकर का विवाद भी इस तथाकथित में उलझ गया है...!
        बचपन के स्कूली दिनों में दादाजी के बगल में ही मेरी भी चारपाई होती थी... चूँकि दादा जी लगभग पचास साल के रहे होंगे जब मेरी दादी का देहावसान हो गया था...मैं उस समय लगभग पाँच वर्ष का रहा होऊँगा...वह मुझे अपने पास ही सुलाते थे...वह अकसर राम, कृष्ण, अकासुर-बकासुर आदि से संबंधित और ऐसी ही अन्य पौराणिक कहानियां सोने के समय मुझे सुनाया करते थे...जिसे सुनते-सुनते मुझे नींद आ जाया करती थी...मैं ही उनके अकेलेपन का साथी भी था...उनका मुझसे बेहद लगाव था...मुझे लगता..जैसे उनका हर क्षण मेरे केयर में ही बीत रहा था... खैर..जब प्रातः के लगभग चार बजनेवाले होते थे तो वह मुझे पढ़ने के लिए जगा दिया करते थे..और मैं भी चारपाई के सिरहाने पर रखी कुर्सी पर लालटेन जलाकर रख लिया करता था...और पढ़ने बैठ जाया करता था...हालाँकि पढ़ता कम था सोता अधिक था..अकसर पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाया करती थी और उसी कुर्सी के हत्थे पर सिर टेक कर सो जाया करता और लालटेन जलती रहती..! और जब किसी कारण नींद खुलती तो दादा जी की ओर देख लेता कि कहीं दादा जी ने सोते हुए तो नहीं देख लिया..! क्योंकि उनका अनुशासन भी बहुत कड़ा था... और..जब वे कभी मुझे सोते हुए पकड़ लेते तो कहते, “का हो..नन्हकउ..सोवत हया का...सोवई क होय त लालटेन बुझाय द...” और मुझे लगता उनके यह कहने में भी मुझे पढ़ने की बात कहने का भाव छिपा होता था...खैर मैं यह कहते फिर पढ़ने बैठ जाता था...कि “नाहीं बाबू पढ़त हई...” हाँ मैं अपने दादा जी को बाबू ही कहता था|
       मेरे इस पढ़ने और सोने के बीच दादाजी का भय एक ऊहापोह बनाए रखता था...जिसके कारण यदि मुझे नींद आती तो एक छोटे से खटके में जाग जाता था...यह क्रम कुछ देर तक चलता रहता था...लेकिन स्थाई रूप से जगाने का काम दूर कस्बे के मन्दिर और मस्जिद में लगे लाउडस्पीकर की आवाज से होता था...मंदिर के लाउडस्पीकर से भजन की आवाजें आने लगती थी तो उसके कुछ देर बाद ही मस्जिद के लाउडस्पीकर से अजान की आवाजें सुनाई देने लगती थी..उसके बाद तो मैं चैतान्यावस्था में पहुँच जाता था...न जाने क्यों दूर कस्बे से आने वाली वे आवाजें बहुत प्यारी लगती थी...और मैं पढ़ता रहता था...हाँ बाद में जब मैं शहर पढ़ने गया तो मस्जिद के लाउडस्पीकर से आनेवाली अजान की उन आवाजों को मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ.. “सुबह के पांच बजने वाले है..” फिर “अल्लाह हो अकबर..” यही सुनकर मेरी नींद खुल जाया करती थी...और मैं भी सोचता था.. “पढ़ाई का समय हो गया है...”

       लेकिन न जाने क्यों आज ये “तथाकथित वाले” लाउडस्पीकर का झगड़ा ले बैठे हैं...जिसके शोर में वे प्यारी ध्वनियाँ कैसे सुनाई देंगी जिसे सुनकर कोई बच्चा बिना अपने दादा जी के भी सुबह-सुबह उठ बैठे और “पढ़ने का समय हो गया है..” सोचते हुए पढ़ने बैठ जाए..! सोचता हूँ..! इन तथाकथितों को मेरे दादा जी जैसा प्यार देने वाला कोई नहीं मिला था...शायद तभी तो.. ये 'तथाकथित’ हो गए हैं...! .....आमीन...!                   

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