न जाने किन विचारों की तंद्रा में मैं खोया
हुआ था... उन्ही विचारों में खोये हुए से, मैं बगल में रखे गिलास की ओर हाथ बढ़ा रहा
था...यह सोच कर कि एकाध गिलास पानी पी लूँ... लेकिन यह क्या...! यह गिलास मेरे हाथ
में क्यों नहीं आ रही... हालाँकि गिलास को देखते हुए ही उसकी ओर मैं हाथ बढ़ा रहा
था...एक बारगी तो मन में हलकी सी घबड़ाहट यह सोचकर आ गयी कि मेरी मानसिक स्थिति ठीक
है या नहीं... फ़िलहाल संतोष की बात यह रही कि.... दो तीन प्रयासों के बाद गिलास
हाथ में न आने का रहस्य समझ में आ गया... दरअसल दोष मेरे प्रयासों में नहीं
था...हाँ मेरा चश्मा ही उस भ्रम का कारण था जो गिलास को पास दिखा रहा था...और मेरा
हाथ गिलास तक पहुँच ही नहीं रहा था... मैंने जब आँख पर तिरछे हो गए चश्में को ठीक
किया तो उसके लेंस ने गिलास की सही दूरी को लाकर मेरी आँख के सामने रख दिया और
मुझसे दुबारा ऐसी गलती न हो मैंने झट से गिलास हाथ में ले पानी गटक गया...
अभी मैंने पानी पीकर गिलास मेज पर रख
बिस्तर पर पसरने का प्रयास कर ही रहा था कि महाशय जी आ धमके... हाँ वह महाशय और
कोई नही मेरे एक पुराने मित्र हैं, और अकसर हम दोनों खुलकर अपने दुःख-दर्द आपस में
बाट लिया करते हैं... उन्हीं की धमक मुझे सुनाई पड़ी...|
‘’क्या बात है भाई, सोने जा रहे
हो...?’’
‘’नहीं, अभी सोने का समय कहाँ हुआ..’’
आलस्य भरे मन से मैंने उत्तर दिया| तब तक मेरे मित्र चालू हो चुके थे...
“क्या बताएं यार... यह जंग नहीं जीती
जा सकती..” उन्होंने कुछ क्षोभ भरे शब्दों में कहा|
“कौन सी जंग जीती नहीं जा सकती.. कौन
सा भारत-पाकिस्तान का युद्ध छिड़ा है...|” मैंने हलके मूड में कहा|
“तुम्हें तो मेरी बात में हरदम मजाक
ही सूझता है.. मेरी बात को कभी गंभीरता से लेते भी हो...?” मित्र महोदय थोड़ा रुष्ट
होते हुए से बोले|
“अरे भाई...अभी आप ने बात ही कहाँ
शुरू की..कि मैं आप की बात मज़ाक में लूँगा..|” मैंने उन्हें मनाने के अंदाज में
बोला|
मित्र महोदय ने जैसे अपनी व्यथा-कथा शुरू की..
“यार क्या बताऊँ अभी मैं कल बस से जा रह था.. मुझे अपने गंतव्य पर पहुँचने की थोड़ी
जल्दी थी...रास्ते में बीच-बीच में सवारियों को उतार और चढ़ा रहा था...”
“कौन सवारियों को उतार और चढ़ा रहा
था...तुम..” मैंने मित्र की बातों पर ध्यान देने के प्रयास में पूँछा|
“अच्छा ये बताओ क्या मैं बस का कंडक्टर
हूँ...?” झल्लाहट में वह मुझसे बोले.. जैसे कंडक्टर उनके लिए कोई तुच्छ जीव हो..!
“ओह..यार सो सारी...!” मुझे अपनी गलती
का एहसास हुआ|
“हाँ वही बस वाला...उसके कंडक्टर से
मैंने कहा कि तुमने तो इसे पैसेंजर बना दिया है... और बस में लिखाये हो सुपर फ़ास्ट
एक्सप्रेस..! तो यार... वह बोला बाबूजी हवा में नहीं चलते जमीन पर चलते
हैं...हवाई-जहाज नहीं हैं... आखिर सवारी नहीं लेंगे तो सरकार के खाते में क्या जमा
करेंगे... और जो बेचारा परेशान है क्या उसे छोड़ते चलें...अगर आप को इतनी ही जल्दी है
तो अपनी सवारी से चला करें...|” एक साँस में मित्र महोदय बोल गए|
“तुम भी तो किसी के फटे में अनावश्यक
टांग अड़ाने लगते हो... उस बेचारे कंडक्टर ने क्या बुरा कहा...?” मैंने जैसे उन्हें
समझाने के स्वर में बोला|
“बात तो आप सही कह रहे हो..वह बेचारा
ठीक आदमी था तभी तो सरकार के खाते की उसे चिंता थी.. मैंने उसकी बातों का बुरा
नहीं माना|’’ जैसे वह स्वयं अपने को ढाढ़स दे रहे हों|
मैंने पूँछा, ”फिर क्या हुआ आगे कुछ और
घटित हुआ कि सीधे अपने गंतव्य पहुँच गए...|”
“तुम मेरी बातों पर गंभीर नहीं
हो...तुम्हें तो बस....|” महाशय थोड़ा नाराज होते हुए से बोले|
“अरे भाई बुरा मत समझिये मैं तो आप को
सुनना चाहता हूँ..तभी न पूँछ रहा हूँ...” मैंने उनकी बातों में रूचि दिखाते हुए
बोला|
अब उनमें मेरे एक अच्छे श्रोता होने का
विश्वास जगा....उन्होंने कहना शुरू किया.. “बस कुछ देर तक चली ही थी कि ड्राइवर ने
उसे फिर रोक दी...और मैं कुछ समझता तब तक मैंने उसे कंडक्टर से कहते हुए सुना कि
टी. आई. साहब हैं..., मैं समझ गया था कि बस को चेकिंग के लिए रोका गया था... और यार
मुझे चिंता हुई कि...मुझे अब थोड़ा देर और होगा...लेकिन..टी. आई साहब तो कंडक्टर
साहब के परिचित निकले... उन्होंने तो कंडक्टर को देखते हुए ही कहा...अरे तुम हो..!
जाओ-जाओ.. और कंडक्टर ने तुरंत ड्राइवर से चलने के लिए कहा और बस चल पड़ी...|” वह
चुप हो गए|
हम दोनों के बीच छाई चुप्पी को तोड़ने के
अंदाज में मैंने कहा “चलिए आपका समय बच गया.. नहीं तो बस चेकिंग के चक्कर में और
देर हो जाती..”
“बात यह नहीं है..” मेरे मित्र थोड़ा
उदास आवाज में बोले|
“तो..अब कौन सी बात आ गयी...|” मैंने
उन्हें कुरेदने के अंदाज में कहा|
“बात तो अब कुछ नहीं आई थी... लेकिन यार
मै सोचने लग गया था...कि..क्या टी. आई. ने बस की चेकिंग न कर अपनी डयूटी के साथ
न्याय किया था...? या उसके संबंध उसकी डयूटी पर भारी थे...?” उन्होंने एक चिंता सी
जाहिर की..|
“यार तुम एक साधारण सी बात में इतना
क्यों सोच रहे हो...इसमें बाल की खाल निकालने की आवश्यकता नही...” मैंने कहा|
“नहीं इसमें बाल की खाल नहीं है...सोचो
हमारे देश में ऐसे कितने लोग संबंधों के निर्वहन में अपनी डयूटी पूरी नहीं कर रहे
हैं... और तो और... क्या हम अपने डयूटी के प्रति लापरवाह दिखाई नहीं देते...फिर हम
व्यवस्था ठीक करने के लिए क्यों झगड़ रहे हैं...|” उनके स्वर में थोड़ी उत्तेजना आ
गयी थी|
“अरे भाई हम समाज में रहते हैं थोड़ा
सामाजिक संबंध निभाना भी तो पड़ता है...इसमें कौन सी बुराई है...|” मैंने उनकी
उत्तेजना को शांत करने का प्रयास किया...|
“बात सामाजिक संबंधों की नहीं है...ऐसे
संबंधों का क्या महत्त्व जो कर्तव्यपालन में बाधक हो... इससे अच्छा तो फिर
असामाजिक होना ही है... फिर क्यों हम अन्ना या केजरीवाल को तलाशते हैं....जानते हो
इसी सोच से तो हमारी गिरावट शुरू हो जाती है...और मैं यह भी कहता हूँ .. कर लो
तमाम एजेंसियों का गठन... हमारे और आपके बीच में क्या है..कौन से संबंध हैं.. कौन
सी एजेंसी इसकी जाँच कर लेगी...! अंत में क्लीन चिट ही हाथ आएगी...|” अब वह थोड़ा
भर्राए स्वर में बोलना आरम्भ कर दिए थे..|
हम दोनों के बीच चुप्पी छाई हुई
थी..थोड़ी देर बाद मैंने करवट बदली तो पीठ में कुछ गड़ा....लगा जैसे मेरा चश्मा तो
नहीं टूट गया..! सोचा कैसे देखूंगा... मेरे मित्र अब जा चुके थे....|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें