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शनिवार, 4 जनवरी 2025

नमस्ते

सेप्टिक टैंक का ढक्कन 

                                               सेप्टिक टैंक के मेनहोल पर कंक्रीट का ढक्कन सीमेंट से जाम था। और वह पिछले दस मिनट से इसे हटाने का प्रयास कर रहा था। ढक्कन के कभी इस किनारे तो कभी उस किनारे छेनी रख वह इसपर हथौड़े मारता। लेकिन ढक्कन को सिमेंट से ऐसा पक्का किया गया था कि यह हिलस नहीं था। रमेसर ढक्कन खोलने के इस प्रयास को देख रहा था। 'इधर इस किनारे छेनी लगाओ’ कहकर रमेसर ने उसे दरार दिखाया। उसने उस जगह छेनी रखकर जोरदार हथौड़ा मारा। छेनी छिटकर दूर घासों के बीच जा गिरी। इसके साथ ही उसके कमीज की जेब से दो सिक्के भी गिर पड़े। वह इन्हें ढूंढ़ने लगा। दूर खड़े ‘वे’ यह देख रहे थे। अब छेनी छोटी चीज नहीं कि खोजने में समय लगे सोचकर उन्होंने छेनीवाले से पूँछा, छेनी नहीं मिल रही क्या! लेकिन उसकी जगह रमेसर बोल पड़ा, “छेनी तो मिल गई है, अब यह अपना सिक्का खोज रहा है।” वहाँ रमेसर के दो अन्य साथी भी खड़े थे लेकिन जैसे उन्हें छेनीवाले की मदद करने से परहेज था। इन्हें देखते हुए ‘वे’ ने कहा, “बेचारे को खोजना ही चाहिए, मेहनत से जो कमाया है।

       सिक्का मिलते ही छेनीवाला फिर से अपने काम में जुट गया। इसे देख रमेसर ने इशारा करके ‘वे’ से मुस्कुराकर कहा, बड़का दिमाग है इसके पास। रमेसर की इस मुस्कुराहट में ‘वे’ को “बड़का दिमाग” का अर्थ छिपा मिला जैसे कि यह ‘बड़का दिमाग’ रमेसर के लिए मुफीद है!

         ‘वे’ को देख रमेसर कुछ याद करने लगा। उसकी स्मृतियों में चालीस वर्ष पहले की बात उभरी। तब यहां कच्चे घर थे और वह भी तब बमुश्किल पाँच-छह साल का रहा होगा। जब बाबा यहाँ इन घरों से त्यौहारी लेने आते थे। कभी-कभी वह भी उनके साथ होता। अब तो सभी घर पक्के हो चुके हैं। वह भी तो आज किसी से कम नहीं उसका भी तो स्वयं का सेप्टिक टैंक सफाई का व्यवसाय है! अब वह सबके साथ खड़े होकर बराबरी की सौदेबाजी करता है। उसे अपने ट्रैक्ट टैंकर को देखकर गर्व हुआ। आखिर गर्व क्यों न हो उसे! इस सेप्टिक टैंक सक्शन मशीन का मालिक भी तो वही है! जबकि एक समय वह भी था जब नगरपालिका में संविदा पर स्वीपर बनने गया था। बीस-बाइस साल पहले की बात है। इस नौकरी के लिए काफी लोग इंटरव्यू देने आए थे उस दिन! जिसमें से दस लोग ही प्रैक्टिकल के लिए तैयार हुए थे। इनमें से एक वह भी था‌। प्रैक्टिकल लेने के लिए नाले का वह स्थान चुना गया जहाँ पूरे कस्बे का सीवर बहकर आता था। यहाँ नाले का पानी गटर जैसा काला और दुर्गंधयुक्त हो चला था। नौकरी पक्की करने के लिए नाले में इसी जगह उतरना था‌। यह रमेसर ही था कि बिना देर किए झम्म से नाले में कूद पड़ा था। बाकी सात ने तो एकदम से मना ही कर दिया था‌। अन्य दो लोग जैसे-तैसे नाले में उतरे भी तो तुरंत बाहर भी निकल आए थे। लेकिन एक वह था कि प्रैक्टिकल ले रहे अफसर को दिखाने के लिए इसमें बेहिचक डुबकी भी लगाया था।।१।।

 उत्कंठा       

        नाले में वह बेझिझक कूदा था। किस बात की झिझक होती उसे! जब जन्म ही ऐसी जाति में हुआ हो जिसमें रोजी-रोटी हाथ से मैला ढोने पर ही चलती हो! यह तो उसका घोषित जन्म सिद्ध अधिकार था!! उस नाले में कूदकर उसने अपना यह अधिकार ही सिद्ध किया था। अफसरानों ने भी उसे नगरपालिका में सफाई कर्मी की नौकरी देकर उसके इस अधिकार पर ही मुहर लगाया था। भर्ती वाली सूची में कुल जमा तीन नाम थे जिसमें पहला नाम उसी का था। जो नाले में नहीं कूदे उन्हें नौकरी नहीं दी गई थी। इनके बारे में कहा गया कि ये सब ऊँची जात वाले हैं इन्हें सफाई कर्मी की नौकरी देने का क्या फ़ायदा, ये केवल तनख्वाह लेंगे सफाई का काम नहीं करेंगे। 

         छेनी पर हथौड़ा पड़ता तो ढक्कन हिलने लगता। जैसे यह ढक्कन अब आसानी से खुल जाएगा। रमेसर ने ट्रैक्टर के टूल बॉक्स से रम्मा निकाला और इससे ढक्कन हिलसाने लगा। लेकिन मेनहोल के एक किनारे पर ढक्कन अभी भी सीमेंट से जाम था। जिसे छेनी से ही काटा जा सकता था। रमेसर ने छेनीवाले को उस किनारे पर छेनी लगाने के लिए कहा। 

         ‘वे’ को छेनीवाले की वेशभूषा पागलों जैसी दिखी। उसके कपड़े जैसे क‌ई महीनों से न धुले हों। मटमैले रंग की कमीज मोटे कपड़े की थी जिसके ऊपर वह धूसरित रंग की फटी सी सदरी पहने है। पैंट भी मटमैले रंग का और ढीला-ढाला है। पैरों में चप्पल भी नहीं है। उसके सिर पर बिखरे घने लंबे बाल जिसे शायद ही कभी कंघी से संवारा गया हो! उसे शक्ल से भी पागल बताने के लिए काफी है। । वह किसी से बोल-चाल भी नहीं रहा केवल अपने काम में लगा है इससे ‘वे’ को उसकी मन:स्थिति पर भी संदेह होने लगा है। तो क्या रमेसर ने इसी वजह से इसे ‘बड़का दिमाग’ वाला कहा!  ‘वे’ ने फिर यही सोचा।

        रमेसर को नगरपालिका में स्वीपर की नौकरी तो मिल गई थी लेकिन यह नौकरी पाकर भी वह खुश नहीं था। अम्मा कहती ब‌ऊ तुम्हारे दद्दा और पप्पा तो करिया अक्षर हैं लेकिन तुम हाथ से मैला ढोने का काम मत करना, खूब पढ़ना। अम्मा उसे जबर्दस्ती स्कूल भी भेजती। यह स्कूल ब्लाक कैंम्पस में ही था। इस ब्लॉक कैंपस में दद्दा को रहने के लिए मिली आठ बाई दस की पक्की कोठरी जर्जर हो चली थी जिसकी छत भी बारिश के दिनों में टपकती! इसके आगे की खाली जगह घेरकर दद्दा ने उसमें एक झोपड़ी बना लिया था जिसमें अपनी गैया के साथ वे रहते थे। कुलमिलाकर इसे ही वह अपना घर मानता। लेकिन त्योहारों के दिन जब ब्लॉक परिसर में सन्नाटा छा जाता तो वह बेचैन हो उठता‌। सोचता, सबकी तरह दद्दा और पप्पा भी त्यौहारों पर अपने घर क्यों नहीं चलते। अम्मा से भी पूँछा था। उसे याद है तब अम्मा ने उससे यही कहा था, ‘छुट्टी में कहाँ जाएं, हमारा कहीं कोई दूसरा घर तो है नहीं यही घर है।’ अम्मा की यह बात उसके लिए कुछ अजीब थी। तभी से घर को लेकर उसकी यह उत्कंठा उसके बालमन के कोने में एक गाँठ बनकर दुबक ग‌ई थी। 

       रमेसर कक्षा पाँच में आया तब उसके उत्कंठा की वह गाँठ खुलनी शुरू हुई! उसने दद्दा से यह पूँछा था कि दद्दा पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे। ।।२।।

दद्दा से पूँछना     

          रमेसर बच्चा था। उसके मन की यह जिज्ञासा कि जब ब्लाक कार्यालय नहीं था तो हम कहाँ रहते थे, मामूली बात नहीं थी। उस बच्चे के दिमाग में यह बात आई कैसे? इसकी भी एक कहानी है। रमेसर अकसर इस घटना को याद करता है।

       कक्षा में वह सबसे पीछे अलग-थलग बैठा था। उस दिन पंडी जी पढ़ाते-पढ़ाते बताने लगे थे कि आजादी के बाद पहले विकास खंड और फिर बाद में यह स्कूल बना था। इसे सुनकर उसे अम्मा की यह बात कि छुट्टी में कहाँ जाएं, हमारा कहीं और कोई घर नहीं यही घर है, उसके एक प्रश्न बन गया। तो क्या आजादी से पहले ब्लॉक में उसकी यह कोठरी भी नहीं थी! फिर उसका घर कहाँ था! उत्कंठा में अचानक वह उठ खड़ा हुआ था और डरते-डरते पंडी जी (वह भी सब बच्चों की तरह मास्टर साहब को पंडी जी ही कहता था) से पूँछ लिया था, “पंडी जी, मेरा घर भी तब यहाँ नहीं था?” उसकी बात पर कक्षा में बच्चे खिलखिला पड़े। पंडी जी भी उसे घूरने लगे थे। वह सहम गया जैसे कुछ गलत पूँछ लिया हो। वैसे भी जिस जाति में वह जन्मा है उसमें जीवन के प्रति आशा और आकांक्षा पनपने की कोई गुंजाइश नहीं है!! ऐसी परिस्थिति में उसे प्रश्न पूँछने वाला संस्कार कहाँ से मिलता? प्रश्न भी केवल और केवल बदलाव की आकांक्षा वाली मन:स्थिति में ही सूझता है। लेकिन जब पंडी जी ने उससे कहा, नहीं, तुम्हारा घर भी यहाँ नहीं था तो साथियों का खिलखिलाहट भूल वह इस उधेड़बुन में फंस गया कि आजादी से पहले उसका घर कहां था। मन ही मन उसने निश्चय किया कि यह बात वह दद्दा से पूँछेगा। छुट्टी होते ही वह सीधे घर की ओर भागा।

            इधर ‘रहने दो अब ढक्कन खुल जाएगा’ सुनकर ‘वे’ ने रमेसर की ओर देखा। वह रम्मा के सहारे ढक्कन उठाए हुए छेनीवाले को मेनहोल से ढक्कन हटाने के लिए कह रहा है। लेकिन ‘वे’ को यह देखकर कुछ अजीब लगा कि रमेसर के दो अन्य साथी भी वहाँ थे जो इस ढक्कन को हाथ नहीं लगा रहे थे और वह भी इनसे ढक्कन नहीं हटवा रहा था जैसे ये इस ढक्कन को छूना नहीं चाहते हों! छेनीवाले ने यंत्रवत वही किया जो रमेसर ने कहा। उसने अपने हाथ से ढक्कन उलट दिया। अब पूरा मेनहोल खुल गया था। रमेसर ने इसमें झांककर अंदाजे से बोला कि इसकी गहराई लगभग आठ फीट। ‘वे’ इसकी गहराई जानते थे इसलिए ‘हाँ’ कह दिया था।
         ‘घर’ को लेकर इसकी जिज्ञासा कैसे शांत हुई होगी! इसका उत्तर इसके बचपन की कहानी में है। सेप्टिक टैंक में झाँक रहे रमेसर को देखकर ‘वे’ ने सोचा।
        घर पहुँचते ही बस्ता फेंककर वह दद्दा को ढूंढने लगा‌। उन्हें झोपड़ी में देखा। वहां भी नहीं थे। फिर अम्मा से पूँछा। पता चला बिलाक कालोनी ग‌ए हैं आते होंगे। वह घर के बाहर खड़ा उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद दद्दा उसे आते दिखाई पड़े तो वह उनकी ओर लपका लेकिन उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा मुड़ा टिन देखकर ठिठक पड़ा। दद्दा यह काम दोपहर से पहले कर लेते हैं! सोचकर वह मुड़ गया और धीमें कदमों से हैंडपंप पर चला गया। वह जानता था कि दद्दा सीधे यहीं आएंगे। दद्दा हैंडपंप पर ही गए। नल के नीचे उन्होंने झा‌ड़ू, बाल्टी और मुड़ा टिन रखा वह हैंडपंप चलाने लगा। लेकिन उत्कंठा में वह बेचैन था। हैंडपंप चलाते-चलाते उसने पूँछा, दद्दा, पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे!
          दस साल के बच्चे रमेसर से दद्दा को ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। बाल्टी धोते-धोते उनके हाथ रुक ग‌ए। विस्फारित आँखों से उसे देखने लगे। उसने भी हैंडपंप चलाना रोक दिया और अपना प्रश्न दोहराया। दद्दा, पंडी जी कह रहे थे कि बिलाक आजादी के बाद बना तो बिलाक बनने से पहले हमारा घर कहाँ था।
            “पाकिस्तान..हाँ हमारा घर पाकिस्तान में था।” बिना लाग-लपेट के दद्दा ने बोल दिया। यह सुनते ही रमेसर ने फिर हैंडपंप चलाना शुरू कर दिया और दद्दा ने बाल्टी धोना। ।।३।। 

कीचड़       

        ‘इसमें तो पानी ही है, कीचड़ नहीं है’ मेनहोल में झाँकने के बाद रमेसर ने ‘वे’ से कहा। तो वे ने सोचा, “आजकल के फ्लस-सिस्टम में मल सेप्टिक टैंक की तली पर बैठता जाता है, शायद इसे ही रमेसर ने अपने व्यवसाय की भाषा में ‘कीचड़’ कहा।” रमेसर ने अपने बचपन में बाल्टी में भरे इस ‘कीचड़’ का रंग कुछ और देखा है! 

           दद्दा प्रतिदिन सुबह नौ बजे ब्लॉक की रिहयशी कालोनी की ओर जाते थे। उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और टिन होता। एक दिन वह भी उनके साथ चलने की जिद कर बैठा। उसकी उम्र तब चार या पांच वर्ष रही होगी। दद्दा अपना काम उसे नहीं दिखाना चाहते थे इसलिए उसे पुचकारा कि साथ न चले। लेकिन वह जिद करके रोने लगा था तो दद्दा उसे अपने साथ ले गए थे। वे सबसे पहले एक बड़े क्वार्टर के पीछे ग‌ए थे। उस क्वार्टर के अहाते की नींव उँची थी। जिसकी बाहरी दीवार पर लोहे का एक ढकना लटका था। दद्दा ने इसे ऊपर उठाया। वहां आले की तरह एक चौकोर गड्ढा था। उसमें मानव-मल का ढेर था। तब शौचालय सूखे होते। उस अहाते में ऐसा ही एक शौचालय था जिसका मल इस गड्डे में गिरता था। दद्दा ने मुड़े टिन से इस ढेर को बाल्टी में भर लिया और झाड़ू से वहाँ सफाई किया। उस दिन उसने देखा, क्या छोटे क्या बड़े, सभी क्वार्टरों के पीछे दद्दा ग‌ए और शौचालय की सफाई किए। उनकी बाल्टी पीले मैले से भर गई थी। दद्दा ने इस बाल्टी को दूर झाड़ियों में जाकर खाली कर दिया था। 

       इस काम के दरमियान न दद्दा कुछ बोले और न ही उसने कुछ कहा था। दद्दा जैसे कुछ अजीब काम कर रहे थे। वह भी चहकना छोड़ उन्हें चुपचाप देखता रहा। लेकिन बाल्टी खाली करके लौटते समय दद्दा ने एक पल के लिए उसे घूरा था। उनका वह घूरना उसे आज भी याद है। शायद दद्दा उससे नाराज थे। उसकी बांह पकड़े वे सीधे हैंडपंप पर आए थे। हैंडपंप पर बाल्टी, टिन और झाड़ू धोने के बाद दद्दा स्वयं नहाए और उसे भी नहलाए। इस घटना के बाद उसने फिर कभी दद्दा के साथ ब्लॉक कॉलोनी का रुख नहीं किया।

        इधर ‘रहने दो अब ढक्कन खुल जाएगा’ सुनकर ‘वे’ ने रमेसर की ओर देखा। वह रम्मा के सहारे ढक्कन उठाए हुए छेनीवाले को मेनहोल से ढक्कन हटाने के लिए कह रहा है। लेकिन ‘वे’ को यह देखकर कुछ अजीब लगा कि रमेसर के दो अन्य साथी भी वहाँ थे जो इस ढक्कन को हाथ नहीं लगा रहे थे और वह भी इनसे ढक्कन नहीं हटवा रहा था जैसे ये इस ढक्कन को छूना नहीं चाहते हों! छेनीवाले ने यंत्रवत वही किया जो रमेसर ने कहा। उसने अपने हाथ से ढक्कन उलट दिया। अब पूरा मेनहोल खुल गया था। रमेसर ने इसमें झांककर अंदाजे से बोला कि इसकी गहराई लगभग आठ फीट। ‘वे’ इसकी गहराई जानते थे इसलिए ‘हाँ’ कह दिया था।

         ‘घर’ को लेकर इसकी जिज्ञासा कैसे शांत हुई होगी! इसका उत्तर इसके बचपन की कहानी में है। सेप्टिक टैंक में झाँक रहे रमेसर को देखकर ‘वे’ ने सोचा।

        घर पहुँचते ही बस्ता फेंककर वह दद्दा को ढूंढने लगा‌। उन्हें झोपड़ी में देखा। वहां भी नहीं थे। फिर अम्मा से पूँछा। पता चला बिलाक कालोनी ग‌ए हैं आते होंगे। वह घर के बाहर खड़ा उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद दद्दा उसे आते दिखाई पड़े तो वह उनकी ओर लपका लेकिन उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा मुड़ा टिन देखकर ठिठक पड़ा। दद्दा यह काम दोपहर से पहले कर लेते हैं! सोचकर वह मुड़ गया और धीमें कदमों से हैंडपंप पर चला गया। वह जानता था कि दद्दा सीधे यहीं आएंगे। दद्दा हैंडपंप पर ही गए। नल के नीचे उन्होंने झा‌ड़ू, बाल्टी और मुड़ा टिन रखा वह हैंडपंप चलाने लगा। लेकिन उत्कंठा में वह बेचैन था। हैंडपंप चलाते-चलाते उसने पूँछा, दद्दा, पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे!

          दस साल के बच्चे रमेसर से दद्दा को ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। बाल्टी धोते-धोते उनके हाथ रुक ग‌ए। विस्फारित आँखों से उसे देखने लगे। उसने भी हैंडपंप चलाना रोक दिया और अपना प्रश्न दोहराया। दद्दा, पंडी जी कह रहे थे कि बिलाक आजादी के बाद बना तो बिलाक बनने से पहले हमारा घर कहाँ था।

            “पाकिस्तान..हाँ हमारा घर पाकिस्तान में था।” बिना लाग-लपेट के दद्दा ने बोल दिया। यह सुनते ही रमेसर ने फिर हैंडपंप चलाना शुरू कर दिया और दद्दा ने बाल्टी धोना। 

        कहानी के बीच-बीच में लेखक अपने तरीके से उपस्थित हुआ है। लेकिन यहाँ एक छोटा सा हस्तक्षेप डिस्क्लेमर के रूप में है! हालांकि इसे कहानी के प्रारंभ में ही आना चाहिए था। दरअसल यह कहानी अभी तक अपने चार मुख्य पात्रों के कारण आगे बढ़ी है, जिनमें नंबर एक पर ‘रमेसर’ दूसरे पर ‘छेनीवाला’ और तीसरे स्थान पर ‘वे’ की स्थिति हैं। हाँ, चौथा पात्र स्वयं इस कहानी का ‘लेखक’ हो सकता है, जो गाहे-बगाहे कहानी में ‘कहन’ की दशा और दिशा में परिवर्तन हेतु उपस्थित हो जाता है। बाकी ‘दद्दा’ जैसे पात्र इस कहानी में मार्गदर्शक-मंडल के सदस्य के रूप में हैं। खैर, इस कहानी में आते-जाते पात्रों की स्थिति का निर्धारण पाठकगण स्वयं कर सकते हैं। दरअसल लेखक को भी यह नहीं पता कि इस कहानी में, अंत तक कितने पात्र प्रकट होंगे और वे किस क्रम पर प्रतिष्ठापित होंगे। वैसे इस कहानी के चौथे पात्र ‘लेखक’ का एक डिस्क्लेमर यह भी है कि स्वयं लेखक भी रमेसर, छेनीवाला और ‘वे’ के किसी न किसी अंश से निर्मित है! या फिर लेखक इस कहानी के पात्रों को अपना अंश देता चलता है। यह ‘अंश’ ही इस कहानी में यथार्थता की सीमा है। लेखक में पात्रों का, और पात्रों में लेखक का कितना ‘अंश’ है इससे पाठकों को अनजान ही रहना चाहिए। 

         अब ‘लेखक’ इस बात पर जिज्ञासु है कि आखिर रमेसर के ‘घर’ का पाकिस्तान कनेक्शन क्या है? जिसे वह हैंडपंप पर दद्दा से सुलझाना चाह रहा था। इसके लिए उस हैंडपंप पर चला जाए ।।४।। 

रमेसर के परदादा     

       बाल्टी और मुड़ा टिन धोने के बाद दद्दा ने झाड़ू धोया। इसके बाद वे नहाए भी। वह हैंडपंप चलाता रहा। दद्दा से उसे कुछ जानना भी तो था! फ़ुरसत पाकर दद्दा ने फिर उसे पूरी कहानी कह सुनाया था। परदादा यानि कि उनके पिता पाकिस्तान से आए थे। दद्दा उन्हें बप्पा कहते थे। उनका नाम बद्दन और घर सिंध में कराची के पास था‌। वहाँ भी पेशा सफाई वाले का ही था। देश के बँटवारे के लिए हिंदू-मुसलमान का खेल उनके समझ में कभी नहीं आया। परदादा को तो इस बँटवारे से पहले यह भी नहीं पता था कि वे हिंदू हैं या कि मुसलमान! केवल कुछ परंपराओं जैसे कि उनके रहन-सहन के कारण मुसलमानों ने उनकी बस्ती वालों को हिंदू घोषित कर पाकिस्तान छोड़ने के लिए कह दिया था। लेकिन फिर उठे इस प्रश्न पर कि इनके जाने के बाद मैला और गटर की सफाई कौन करेगा पाकिस्तान की सरकार ने सफाई-कार्य को आवश्यक सेवा घोषित कर उनकी बस्ती वालों को भारत जाने से रोक दिया था।

          बद्दन भारत क्यों आए? दद्दा से उसने पूँछा था। यह सोचकर कि जो काम दद्दा यहाँ करते हैं वही काम उसके परदादा पाकिस्तान में करते थे, तो फिर उन्हें भारत आने की आवश्यकता क्यों पड़ी, इसलिए उसने यह प्रश्न किया था‌। 

        देश के बँटवारे का कसक उन्हें आजीवन रहा। परदादा बद्दन बाद में सन पचास में भारत आए। दद्दा तब तेरह या चौदह साल के थे। बद्दन सफाई वाले काम को बुरा नहीं कहते थे। लेकिन उन्हें अछूत मानकर जब लोग उनसे दूरी बनाते तो उन्हें बहुत पीड़ा होती। इसी कारण उनकी बस्ती के आसपास रहने वाले ऊँची जात वालों के बँटवारे के समय भारत जाने से बप्पा मन ही मन खूब खुश भी हुए थे। उन्हें इस बात की खुशी थी कि अब उनके सामने ऊँची-नीची जाति का झंझट नहीं रहेगा। लेकिन यह दुख उन्हें जरूर था कि जातीय ऊँच-नीच की पीड़ा से बचने के लिए पिछले पचास बरस से उनकी बस्ती में लोग ईसाई बन रहे थे, आजादी के बाद तो यह सिलसिला और भी तेज हो गया था। 

          परदादा का भेदभाव से मुक्ति पाने की खुशफहमी का स्वप्न जैसे टूट गया था। जब उनकी जाति का काम बताकर मुसलमानों ने मानव-मल उठाने और सीवर की सफाई करने से इन्कार कर दिया। अब मुसलमानों से भी उन्हें वही जातिगत भेदभाव वाला अपमान झेलना था। वहां धीरे-धीरे परंपराओं और रीति-रिवाजों के मानने पर पाबंदी का जैसा वातावरण बन रहा था। इससे वे घुटन महसूस करते! एक बार उनकी ईसाई बनने की इच्छा हुई थी‌। लेकिन इससे भी भेदभाव से मुक्ति नहीं मिलेगी, सोचकर मुसलमान बनने पर तैयार हो ग‌ए थे। लेकिन किसी धार्मिक लबादे से बँधकर वे नहीं रहना चाहते थे। शीघ्र ही उन्हें समझ में आ गया कि धर्म परिवर्तन से भी ऊँच-नीच की समस्या से मुक्ति नहीं मिलने वाली। अब उन्हें उन्नीस सौ सैंतालीस वाली आजादी जैसे काटने दौड़ती। वे कहते स्वर्ग में रहकर गुलामी करने से अच्छा है नरक की स्वतंत्रता! और एक दिन अपने परिवार को लेकर किसी तरह सीमा पारकर वे भारत आ ग‌ए थे। 

            बद्दन परिवार के साथ चार बरस तक दिल्ली के शिविर में रहे। यह वही समय था जब यह ब्लॉक बना था। फिर सरकार ने बप्पा को इसी ब्लॉक में सफाई की नौकरी पर भेजा था। यहाँ रहने के लिए उन्हें यह कोठरी मिली थी। तब से यही हमारा घर है।

         दद्दा सब बता चुके थे। लेकिन ‘पाकिस्तान’ सुनकर उसे कुछ याद आया! दद्दा से पूँछा, 

        “बाल्टी वहाँ क्यों खाली किए दद्दा, वहाँ तो सब लड़िकन खेलने जाते हैं…जानते हो! हमारी गेंद चली गई थी वहाँ, विज्जू उसे लाने गया तो उसका पैर उस ‘पाकिस्तान’ में छपाक से पड़ गया, इसे दूर दूसरी ओर फेंका करिए‌।” 

           रमेसर बच्चा है, दद्दा ने रुककर जैसे कुछ पल सोचा और फिर बोले थे, 

           “देख बचवा इस जगह कोई नाला-वाला तो है नहीं कि बाल्टी उसमें गिराएं, ले-देकर यहाँ ये खेत और झाड़ियों के बगल वाला वह मैदान‌ ही है। खेत में गिराने पर गाँव से खेत के मालिक आकर गरियाते हैं..उस दिन की भरी बाल्टी उस खेत के कोने में उलटा था। उसी दिन जुताई कराने आए खेत के मालिक ने बहुत गाली दिया कि उनके खेत में मैला क्यों गिराया! क्या करूं बचवा यही समस्या है यहाँ।”

         यहाँ ‘पाकिस्तान’ में छपाक से पैर पड़ने की बात पर लेखक को स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है‌। दरअसल इस ‘पाकिस्तान’ में किसी देश या समुदाय के प्रति घृणा का भाव नहीं बल्कि इसमें धर्म के आधार पर विभाजन की विचारधारा या इस आधार पर देश के बँटवारे का दर्द और इसके विरोध का भाव है, जो ‘पाकिस्तान’ में रुढ़ हो गया।

         उस दिन दद्दा की बात पर वह गंभीर हो गया था! उसके मन में एक चिनगारी उठी थी। फिर उसने दद्दा की ओर देखा था। 

         उसे आज भी याद है, बूढ़े होते उनके शरीर पर पीढ़ियों से होते आए अपमान के दंश दिखाई पड़े थे। इस पीड़ा का वे अनुभव करते भी हैं या नहीं, उसे पता नहीं! लेकिन उनके चेहरे पर भावशून्य यह ‘स्थितिप्रज्ञता’ इसी पीड़ा की उसे अभिव्यक्ति जान पड़ती! तभी तो एक बार दद्दा से उसने कहा भी था, “दद्दा मुझे यह देखकर घिन आती है, मत करो यह काम।” लेकिन यह कहकर कि “इससे क्या घिनाना! यह तो हमारा कर है यही रोजी है” उन्होंने उसे चुप करा दिया था।

         दद्दा के इस कहे में कि “यह तो हमारा कर है” रमेसर को एक व्यंग्य जैसा लगा। जैसे वे कहना चाह रहे थे कि अपमान-तिरस्कार की पीड़ा से मुक्ति इसे सहने की आदत में है। गुस्से से भर रमेसर ने इस ‘आदत’ पर अपनी मुट्ठी भींच लिया। उसने देखा छेनीवाला टैंकर का पाइप खींचकर सेप्टिक टैंक के मेनहोल में डाल रहा है और एक साथी वैक्यूम पंखा चलाने के लिए ट्रैक्टर स्टार्ट करने लगा है। ।।५।। 

 सीवर का गाढ़ापन !        

          रमेसर ने छेनीवाले से सक्शन पाइप अपने हाथ में लिया। खींचकर इसे सेप्टिक टैंक की गहराई में उतारा। उधर वैक्यूम फैन के चलते ही इस पाइप से पानी सुड़कना शुरू हो गया। इस पाइप को लिए रमेसर मेनहोल पर ऐसे झुका है जैसे व्यवसायगत ईमानदारी में उससे कोई चूक न होने पाए और टैंक की सफाई अच्छे से हो। अब तक सांझ भी स्याह हो चुकी थी, लेकिन बल्ब की रोशनी में उसका चेहरा साफ दिखाई पड़ रहा था। इस चेहरे पर शांति और गंभीरता की खामोशी देखकर  ‘वे’ ने सोचा कि चार लोगों की टीम होते हुए भी सीवर का वैक्यूम-पाइप रमेसर स्वयं अपने हाथ में लिए है जबकि वह किसी को भी यह पाइप दे सकता था! आखिर अपनी टीम का स्वयं लीडर भी है वह। लेकिन नहीं जैसे किसी इबादत में हो किसी को यह पाइप नहीं देगा वह!! इधर सेप्टिक टैंक में धीरे-धीरे पानी कम होने से ‘सीवर’ का गाढ़ापन भी झलकने लगा था।

        लेकिन रमेसर की आँखों में ‘वे’ झाँक नहीं पाए। जबकि सेप्टिक टैंक में देख रहीं उसकी ये आँखें सजल थीं! कैसे इस पाइप को छोड़ दे वह! नहीं छोड़ेगा इसे। चाहे सेप्टिक टैंक हो या गटर, सीवर को खाली करते समय वह ऐसे ही पाइप अपने हाथ में पकड़ लेता है, इसे किसी को तब तक नहीं छूने देता जब-तक ‘कीचड़’ भी पूरी तरह से न निकल जाए! सेप्टिक टैंक में ‘सीवर’ की ओर झांंकती उसकी इन सजल आँखों को किसी ने नहीं देखा, ‘वे’ ने भी नहीं। अपने पप्पा के लिए उसका यह काम इबादत ही तो है, यह काम ही पप्पा के प्रति उसकी सच्ची श्रद्धांजलि है! उसने पाइप पर अपने हाथों का पकड़ और भी मजबूत किया जिससे कि यह पाइप उससे कोई और न लेने पाए!!! ।।६।।

       “यह भिखमंग‌ई ठीक नहीं बाबा, इससे अच्छा तो फिर यह मैला ढोने का काम है..कम से कम इसमें कुछ करके तो कमाना है” दद्दा से यही कहा था पप्पा ने उस दिन। दद्दा की इच्छा थी कि पप्पा शहर में स्वीपर की नौकरी कर लें लेकिन पप्पा इसके लिए तैयार नहीं हो रहे थे जबकि दद्दा इसे अपनी जाति का पुश्तैनी काम बताते। इससे पप्पा चिढ़ उठते। जाति का पुश्तैनी काम को लेकर उनमें एक अजीब सी छटपटाहट थी। इस छटपटाहट से मुक्ति पाने वह शहर में दिहाड़ी खोजने चले जाते। लेकिन वहाँ भी न टिकते। वापस आकर घर में पड़े रहते। एक बार उन्हें अम्मा से कहते सुना था, “क्या कींचड़ में लिथड़ी इस जाति को उतारकर हम फेंक नहीं सकते?” उस दिन पप्पा की बात वह समझ नहीं पाया था। लेकिन वर्षों बाद उसे यह समझ में आया था कि जाति भविष्य निर्धारित करती है! पप्पा निरक्षर थे, सोचते और केवल घुटते।  

      त्योहार के दिन दद्दा पास के गाँव में जाते और त्योहारी लेकर लौटते। उस दिन उनकी गठरी में ढेर सारी पूरियां कचौरियां और अन्य खाने की चीजें होती। ऐसे ही एक दिन कोई बड़ा त्योहार था। ब्लाक कालोनी में सन्नाटा था। वह भी उनके साथ गाँव में गया था। लौटकर दद्दा घर आए तो पप्पा गुस्से में उनसे बोले थे कि, यह अच्छी बात नहीं कि घरों के सामने हाथ पसार खड़े हो जाओ। यह भिखमंग‌ई ठीक नहीं बाबा! इससे अच्छा तो फिर यह मैला ढोने का काम है कम से कम इसमें कुछ करके तो कमाना है! 

         उसने देखा था, दद्दा गांव के कुछ ‘बड़े’ लोगों के घर बारी-बारी ग‌ए थे। वह इनके दरवाजे पर जाकर खड़े हो जाते। कुछ देर प्रतीक्षा के बाद घर में से कोई निकलता और उनकी चादर में ऊपर से त्योहारी डाल देता। धीरे-धीरे यह चादर गठरी में बदल गई थी। उसने यह भी गौर किया था कि इस दौरान लोग दद्दा को छूने से परहेज करते। उन्हें दूर बैठाते थे। फिर भी दद्दा को देखते ही गाँव के लोग उनका हालचाल पूँछते। 

        पप्पा की बात पर दद्दा ने कोई ऐतराज नहीं जताया। लेकिन बोले थे, “देख दिन्ने, यह भिखमंगाई नहीं, इसी बहाने लोगों से मिलना जुलना भी होता है। यदि किसी त्योहार पर नहीं गया तो बाद में गांव के ये लोग मुझसे पूँछते हैं कि त्योहार के दिन मैं क्यों नहीं दिखाई दिया। दिन्ने! एक बात और! गाँव में आज तक किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है। इन लोगों के यहाँ शादी विवाह में सूप देने की परिपाटी मैं ही निभाता हूँ उस समय ये मुझे नेग-चार देना नहीं भूलते…दिन्ने!” 

           “उसके दद्दा और पप्पा दो छोर पर खड़े थे। एक की जीवन के प्रति संवेदनशीलता परंपरा और संस्कार के खांचे की बंदी है तो दूसरा इस खांचे की जकड़न से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है। यह पीढ़ी के अंतर का लक्षण नहीं बल्कि अस्तित्व के अनुभूति की स्वत:स्फूर्त चेतना है, जो किसी परंपरा या संस्कार की मोहताज नहीं।  इन दोनों के द्वंद्व के बीच रमेसर खड़ा है।”  यह ऑब्जर्वेशन लेखक का है।

         सेप्टिक टैंक में पानी चार फीट नीचे जा चुका था। इसे दिखाकर रमेसर ने ‘वे’ से कहा, इसमें दो टैंकर सीवर था..एक हो गया है दूसरा चक्कर भी होगा?” उसने ‘वे’ को टैंकर में लगा पारदर्शी नली का वह संकेतक दिखाया जिसमें पानी ऊपर तक चढ़ा था। इसे देखकर ‘वे’ ने टैंकर फुल होने पर अपनी भी सहमति जता दिया। रमेसर ने ‘दूसरा चक्कर’ इस अंदाज में कहा था जैसे वह इसकी अनुमति लेना चाहता था। ‘वे’ ने भी कह दिया कि, पूरा सेप्टिक टैंक खाली होना चाहिए। ।।७।। 

वे’ की प्रेषित रिपोर्ट  

     रमेसर से इशारा पाकर छेनीवाले ने टैंकर का नोजल बंद किया और पाइप हटाया‌। स्वयं रमेसर ने भी सेप्टिक टैंक से पाइप बाहर निकाला। अब उसे टैंकर खाली करना था। पास में खेत थे। ज्यादा दूर न जाना पड़े इसलिए इन खेतों में ही टैंकर का सीवर गिराने की सोचा। लेकिन खेत मालिक नाराज होंगे, कहकर ‘वे’ ने इसे कहीं और गिराने का सुझाव दिया। लेकिन खेत के लिए यह खाद होता, बोलकर रमेसर इसे अँधेरे में कहीं और गिराने पर तैयार हो गया। वह भी ट्रैक्टर के साथ गया। गाँव से बाहर एक सूनसान जगह पर, जहां लोगों की आवाजाही लगभग न के बराबर थी, घुप अँधेरे में उसने वहीं टैंकर खाली करा दिया। 

           ‘वे’ का अंदाजा था कि टैंकर खाली होकर आधे घंटे में लौटेगा लेकिन पंद्रह मिनट में ही ट्रैक्टर लौट आया। एक बार फिर रमेसर के सभी साथी काम में जुट गए। एक ने पाइप टैंकर के नोजल में लगाया तो छेनीवाला इसके दूसरे छोर को सेप्टिक टैंक के मेनहोल में लटकाने लगा। इस बीच दूसरे साथी ने ट्रैक्टर स्टार्ट कर वैक्यूम फैन चालू कर दिया। रमेसर ने सक्शन पाइप अपने हाथ में ले इसे सेप्टिक टैंक की गहराई में उतार दिया। टैंकर द्वारा सीवर सुड़कना शुरू हो गया था। 

         ‘वे’ सेप्टिक टैंक के इस सफाई कार्य पर अपनी नज़र क्यों गड़ाए हैं? लेखक इस प्रश्न पर पाठकों को कुछ बताना चाहता है! दरअसल ‘वे’ एक सामाजिक संस्था से जुड़े हैं जो मैनुअल स्केवैंजिंग पर काम करती है। कुछ दिन पहले इन्होंने अपनी इस संस्था को एक रिपोर्ट में बताया था कि मैनुअल स्केवैंजरों की संख्या शून्य है अर्थात अब कोई हाथ से मैला नहीं ढोता। यही नहीं, हाल ही में एक गोष्ठी में शासन के नुमाइंदों से भी इन्होंने यही कहा था। लेकिन आज सेप्टिक टैंक का यह सफाई कार्य देख ‘वे’ थोड़ा कन्फ्यूज़ हैं कि वह रिपोर्ट सही है या नहीं! 

        फिर यह याद करके कि इन्स्ट्रूमेंट की सहायता से सीवर सफाई करने वाला मैनुअल स्कैवेंजर नहीं माना जाता। उनका संदेह दूर हो गया‌। मतलब रमेसर और उसके साथी मैनुअल स्केवैंजर नहीं है। क्योंकि ये लोग बाकायदे मशीन से सेप्टिक टैंक की सफाई कर रहे हैं। लेकिन उनकी दृष्टि में सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले ‘असाधारण’ लोग होते हैं। लेकिन उन्हें चिंता हुई कि कहीं यह ‘असाधरणता’ भी किसी ‘खांचे’ की शक्ल न अख्तियार कर ले! जाति और पेशे का!!

          ‘वे’ के इस चिंतातुर मन से बेखबर रमेसर ने मेनहोल में झाँकना चाहा। लेकिन उसके ठीक ऊपर जलते बल्ब की रोशनी मेनहोल से सेप्टिक टैंक के भीतर नहीं पहुँच रही थी। उसने मोबाइल फोन का टार्च ऑन कर इसमें देखा। टैंक में सीवर गाढ़ा दिखाई पड़ा। इसकी सकिंग मुश्किल है सोचकर, उसने ‘वे’ से एक बांस लाने के लिए कहा। ‘वे’ बांस लेने चले ग‌ए। उन्हें बारह से पंद्रह फीट की लंबाई का बांस चाहिए था जिससे रमेसर टैंक में सीवर को हड़होरा सके। यह बांस खोजने पर भी नहीं मिल रहा था जबकि पंद्रह-बीस वर्ष पहले घर के इधर-उधर पड़े ऐसे बांस आसानी से मिल जाते थे। इधर रमेसर पास के चबूतरे पर बैठकर उनके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा‌ था। ऐसे गाढ़े सीवर में तो पप्पा बेहिचक उतर जाते थे! उसे पप्पा याद आए। ।।८।।

पप्पा और एरिक 

        उस दिन पप्पा नहीं उनका शरीर आया था घर। बीडीओ ऑफिस के ठीक पीछे ब्लॉक परिसर में वह क्वार्टर था। सबसे अलग-थलग अकेले में बनी उपेक्षित सी एक कमरे की यह कोठरी दद्दा को रहने के लिए मिली थी। दद्दा ने इसके सामने टटिया की बाउंड्री से घेर बना लिया था। तब कक्षा सात में था वह। यहाँ से उसका स्कूल दो किमी दूर था। उस दिन स्कूल से लौट रहा था। जैसे ही ऑफिस के पीछे पहुँचा उसे घेर के सामने कुछ लोग खड़े दिखाई दिए थे। सब मौन थे, सबके चेहरे पर एक अजीब खामोशी थी! लोग हों और फिर भी खामोशी हो! तो अनहोनी घटित होने की आशंका प्रबल हो उठती है! उसे घबराहट हुई। भागते हुए वह इस घेर में पहुँचा था। वहाँ पप्पा जमीन पर लेटे थे और अम्मा उनके सिरहाने बैठी थीं। पप्पा सुबह उसके स्कूल जाने के पहले ही काम पर निकल ग‌ए थे। वे अम्मा से कह भी रहे थे कि आज तबियत कुछ नासाज है। फिर भी काम पर चले ग‌ए थे। वह कुछ समझ पाता कि दद्दा ने उसे अँकवार में भर लिया था, उनकी आँखों से आँसू बहने लगे थे। अम्मा दहाड़ें मारकर रो पड़ीं थीं। 

        पप्पा के मन में क्या चलता था दद्दा अनजान रहते। पप्पा स्वीपर नहीं बनना चाहते थे। इसे जाति से जोड़ा जाता है, यह रंज था उन्हें। वे कहते मैं स्वीपर नहीं मजदूर बनना चाहता हूं क्योंकि मजदूर की कोई जाति नहीं होती। इसीलिए वे शहर में मजदूरी करने निकल जाते। लेकिन मजदूर भी नहीं बन पाए थे। मजदूर बनने की कोशिश में जाति और पुश्तैनी पेशा आड़े आ जाता। एक बार गुस्से में भर कर उन्होंने अम्मा से कहा था, मेरी जाति मेरे माथे पर कलंक है। यह बोझ लेकर मैं नहीं घूम सकता। आखिर में विवश होकर उन्होंने शहर जाना छोड़ दिया था। ऐसे ही साल दर साल गुजरे थे। दद्दा उन्हें निठल्ला कहने लगे। अचानक एक दिन इस निठल्ल‌ई से ऊबकर पप्पा स्वीपर बनने के लिए तैयार हो ग‌ए थे। क्या करते! जीवन की उस अँधेरी सुरंग से निकलने के लिए जब किरण नहीं मिली तो उसी सुरंग में रहना उन्होंने अपनी नियति मान लिया। वे शहर ग‌ए और नगरपालिका के एक सफाई ठेकेदार ने उन्हें अपनी टीम में रख लिया था।

          ‘वे’ को बांस लेकर लौटने में देर हो रहा है। वह अपने अतीत में चला गया। पप्पा की मौत के बाद उसका मन पढ़ने में न लगता। किसी तरह एक साल और पढ़ पाया था। कक्षा आठ के बाद तो स्कूल जाने से ही उसका मन उचट गया था। इसके क‌ई कारण थे। अम्मा दुखी दिखाई देती, घर में हमेशा मनहूसियत छाई रहती। दूसरी सबसे बड़ी बात यह भी थी कि स्कूल में भी उसे सबसे अलग-थलग रहना पड़ता, वह चाहकर भी अन्य छात्रों से घुल-मिल नहीं पाता था। उसे पप्पा की यह बात कि जाति माथे पर कलंक है, एकदम सही लगता। फिर भी कक्षा आठ तक पढ़े होने के कारण उसके अंदर पढ़ने की प्रवृत्ति आ गई थी। वह अकसर देश-दुनिया में उसके इस व्यवसाय पर क्या बातें हो रहीं है, इसपर खबर जरूर पढ़ता।

         अचानक उसे एरिक की याद आई इसके बारे में कभी अखबारों में पढ़ा था‌। एरिक पाकिस्तान के सिंध में परदादा की जन्मभूमि का निवासी था। एरिक के पूर्वज उसकी ही जाति के थे जो क‌ई पीढ़ियों पहले ईसाई बन ग‌ए थे‌। लेकिन धर्म बदल लेने बाद भी वहाँ वह भेदभाव का शिकार है। आज भी एरिक को गटर और सीवर में घुसना पड़ता है। जबकि अपने देश भारत में आज उसका सक्शन मशीन वाला सफाई व्यवसाय है। उसे याद है उस एरिक की तरह कभी पप्पा भी शहर से लौटने के बाद अम्मा से यही बताते कि “जब सीवर में घुसता हूँ तो तिलचट्टों से घिर जाता हूँ ये मेरे शरीर पर दौड़ने लगते हैं!” शायद स्वप्न में भी ये तिलचट्टे उन्हें अपने शरीर पर रेंगते दिखाई पड़ते इसीलिए कभी-कभी रात में सोते से अचानक उठकर वे अपना शरीर झाड़ने लगते!! यही नहीं उसने स्वयं देखा था कि शहर से लौटने के बाद पप्पा बार-बार अपना हाथ धोते, उनकी इस आदत से परेशान होकर एक बार अम्मा ने उन्हें कुछ कह दिया तो वे कहने लगे थे कि “क्या करूँ..मेरे हाथों में जैसे मैले की बदबू आती रहती है, इसीलिए बार-बार हाथ धोना पड़ता है!” ।।९।।

मौत का कुंआ     

      रमेसर के मोबाइल की रिंगटोन बजी। वह फोन पर बात करने में मशगूल हो गया। इसी समय ‘वे’ भी बाँस लेकर आए थे। उन्हें फोन पर रमेसर किसी को अगले दिन साँझ का समय देते सुनाई पड़ा। इससे ‘वे’ ने अनुमान लगाया कि साफ‌ई व्यवसाय में रमेसर को काम मिलने की कमी नहीं है। यह बातचीत खतम कर रमेसर ने छेनीवाले से समरसेबल चलाने के लिए कहा। उसने पंप चलाया और इसका पाइप मेनहोल पर रख दिया। पानी टैंक में गिरने लगा। ‘अब वैक्यूम सक्शन पाइप सीवर को अच्छे से सुड़क लेगा’, बोलकर रमेसर ने ‘वे’ से बाँस ले लिया। 

          उत्सुकतावश ‘वे’ ने भी मेनहोल में झांका। सेप्टिक टैंक की तली पर मल वाला गाढ़ा ‘कीचड़’ जमा था। वे सम‌झ ग‌ए कि रमेसर बाँस की मदद से इस कीचड़ को पानी में मिलाकर पतला करना चाहता है, जिससे सक्शन पाइप इसे आसानी से सुड़क पाए। लेकिन ‘वे’ ने यह सोचकर ‘यदि कोई टैंक में उतर कर यह काम कर दे तो इसकी साफ‌ई और अच्छे से हो जाएगी,’ रमेसर को देखने लगे। रमेसर हाथ में बाँस लिए अपने पप्पा को याद कर रहा था। पप्पा के जमाने में सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए आज के जैसा वैक्यूम सक्शन टैंकर वाली यह मशीन नहीं थी, जो उसके पास है। पप्पा सेप्टिक टैंक में उतर जाते थे। वे सेप्टिक टैंक से इस गाढ़े कीचड़ को बाल्टी में भर-भरकर बाहर निकालते थे। तब उनका पूरा शरीर सीवर के कीचड़ में लथपथ हो उठता! लेकिन उसे आश्चर्य होता कि जाति और इस पेशे को माथे पर कलंक कहने वाले पप्पा कैसे नि:संकोच सेप्टिक टैंक में डूबकर सफाई कर पाते थे!

           लेकिन सन तिरानबे या चौरानबे के आसपास की बात होगी। अचानक कुछ दिन से उनका शहर जाना बंद हो गया था। फिर एक दिन पप्पा को दद्दा से यह कहते सुना कि सरकार के डर से ठेकेदार काम पर नहीं बुलाता‌। उस दिन उन्होंने दद्दा से यह भी कहा था कि सरकार ने हाथ से मैला ढोने और आदमी के सीवर में घुसने पर रोक लगा दिया है। अब कोई दूसरा काम करेंगे। लेकिन दो-चार महीने बीते होंगे कि पप्पा फिर से सीवर सफाई के काम से शहर जाने लगे थे। 

      उसे याद है, उन दिनों पप्पा अकसर बीमार रहते। डाक्टर साहब ने उनकी बीमारी का कारण सीवर में घुसना बताकर उन्हें सेप्टिक टैंक में उतरने से मना किया था। लेकिन वे नहीं मानते थे। अम्मा के टोकने पर कहते, ‘बप्पा भी अब रिटायर हो गए हैं, काम पर जाना जरूरी है और इस काम के सिवा उनके लिए कोई दूसरा काम भी तो नहीं।’ उस दिन उनकी तबियत कुछ ज्यादा खराब थी। अम्मा ने उन्हें काम पर जाने से रोका था। दद्दा भी समझाए थे। लेकिन यह कहकर कि “आज एक बड़े सेप्टिक टैंक की सफाई होना है, न जाने से ठेकेदार नाराज होगा” वे सुबह-सुबह शहर चले ग‌ए थे। उस दिन वह सेप्टिक टैंक उनके लिए मौत का कुंआ बन गया था। सबसे पहले वही उतरे थे उसमें! 

         लोग बताते थे कि उस दिन सेप्टिक टैंक में उतरते ही पप्पा बेहोश हो ग‌ए थे। अंदर से कोई आवाज नहीं आई तो घबड़ाहट में उनके एक साथी उन्हें देखने सेप्टिक टैंक में उतर ग‌ए थे। लेकिन अंदर जाते ही वे भी बेहोश हो ग‌ए थे। लोगों ने शोर मचाया तो भीड़ इकट्ठी हो गई थी। ठेकेदार तो वहाँ से भाग निकला था। जैसे-तैसे लोगों ने उन्हें सेप्टिक टैंक से बाहर निकाला था और अस्पताल पहुँचाया। लेकिन पप्पा और उनके वे साथी, दोनों नहीं बच पाए थे। कहते हैं कि उनकी मौत सेप्टिक टैंक में ही हो गई थी। बहुत दिनों तक दद्दा और अम्मा थाना से लेकर कचहरी तक अधिकारियों के चक्कर लगाते रहे, लेकिन मुआवजा नहीं मिला। बाद में पता चला कि पप्पा की इस मौत के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं माना गया। 

       उस दिन वह घेर में पहुँचा तो वहाँ के दृश्य देखकर जैसे उसे काठ मार गया था! वह जड़वत अम्मा का रोना और दद्दा के आँसू देखता रहा। फिर अचानक उसका ध्यान पप्पा के पहने कपड़े पर चला गया था। सीवर के कीचड़ से लिथड़े वे कपड़े उनके मृत शरीर से चिपके पड़े थे! इसे देख उसकी आँखें डबडबा आई थीं!! फिर न जाने क्यों उसने अपनी बाँह से वे आँसू पोंछ डाले थे!! वह नहीं रोया। ।।१०।‌।

पुनर्वास 

       सक्शन पाइप के मुहाने के पास कपड़ेनुमा चीज देख रमेसर की तंन्द्रा टूटी! यह पाइप में न फंसे, इसे बाँस से दूर किया।  छेनीवाला यह देख रहा था। उसने रमेसर से बाँस ले लिया और इसमें फंसाकर इस कपड़े को सेप्टिक टैंक से बाहर निकाल दिया। और बाँस को सेप्टिक टैंक में इधर-उधर घुमाने लगा। जिससे गाढ़ा सीवर पानी में घुले और सक्शन पाइप इसे पूरी तरह खींच ले। सीवर अब पतला हो गया था। बीच-बीच में वह सक्शन पाइप को भी सेप्टिक टैंक की तली पर इधर-उधर रखने लगा जिससे पाइप अब टैंक में बचा सीवर आसानी से सुड़क ले।

       इस रमेसर की थोड़ी कहानी लेखक उसकी स्मृतियों में जाकर कहना चाहता है। सन ९३ में हाथ से मैला ढोने और सेप्टिक टैंक में घुसकर सफाई करने जैसे रोजगार पर सरकारी रोक तो थी लेकिन सन २०१३-१४ में इस रोक के साथ साथ सफाई कर्मियों के लिए पुनर्वास योजना भी लागू हुई। जाति और पेशा से मिले कर्म-संस्कार की बाड़बंदी में कैद दद्दा हाथ से मैला ढोने को अपनी नियति मान बैठे थे। वहीं पप्पा के मन में इस नियति के प्रति जबरदस्त आक्रोश था। गरिमाहीन इस बाड़बंदी से मुक्ति के लिए वे छटपटाते रह ग‌ए! दद्दा और पप्पा की पीड़ा का अहसास उसे बाद में हुआ। इससे उबरने के उपायों पर वह हमेशा ठंडे मन से विचार करने लगा था। उसे सेप्टिक टैंक सफाई के लिए न‌ई तकनीक भी दिखाई पड़ने लगी थी। इसी बीच सरकार की पुनर्वास योजना से उसके लिए एक न‌ए विकल्प का द्वार खुल गया। जैसे-तैसे करके उसने हाथ से मैला ढोने या सीवर साफ करने वालों के पुनर्वास की बन रही सूची में अपना भी नाम शामिल कराया। इस योजना में उसे चालीस हजार रुपए मिले थे‌। इसके बाद उसने सेप्टिक टैंक सफाई व्यवसाय के लिए कौशल प्रशिक्षण भी लिया। इस प्रशिक्षण लेने के भी उसे तीन हजार रुपए मिले। फिर बैंक से पाँच लाख का कर्ज लेकर उसने खुद का सफाई व्यवसाय शुरू किया। आज वह ट्रैक्टर के साथ इस वैक्यूम सक्शन टैंकर वाली मशीन का मालिक है।

          शुरुआत में सीवर टैंकर के ट्रैक्टर की ड्राइवरी के लिए कोई तैयार न होता। एक आदिवासी लड़का ड्राइवरी के लिए तैयार हुआ, लेकिन उसकी शर्त सक्शन पाइप को न छूने की थी! अन्य काम जैसे सक्शन पाइप फैलाना, इसे टैंक में ले जाना और धोकर पाइप को समेटना वह स्वयं करता। आरंभ में ज्यादा काम नहीं था, जो कमाई होती उसका ज्यादातर हिस्सा लोन चुकाने और ड्राइवर पर खर्च हो जाता। लेकिन शुष्क शौचालय के निर्माण पर पूर्ण रोक होने से सेप्टिक टैंक के साथ फ्लश वाले शौचालय बनने लगे थे। क्या नगर और क्या गाँव! शौचालय निर्माण में जैसे क्रांति आ गई थी क्योंकि सरकार ने भी खुले में शौच जाने के विरूद्ध जागरूकता अभियान छेड़ा हुआ था। धीरे-धीरे यह सफाई का काम बढ़ने लगा था। अब एक ऐसा आदमी चाहिए था जो सक्शन पाइप को टैंकर से जोड़े, फैलाए और समेटे। मुश्किल से एक लड़का ‘कींचड़’ न छूने और सामान्य से कुछ ज्यादा मजदूरी पर तैयार हुआ। लेकिन अभी भी सीवर टैंक से ‘कीचड़’ की सफाई उसे ही करना होता और ‘कीचड़’ से लथपथ सक्शन पाइप भी धोता। जबकि उसके अन्य दो साथी तमाशबीन बने रहते! बावजूद इसके कि वह अपनी इस सफाई टीम का मालिक भी था। इससे उसके स्वत्व-बोध को ठेस पहुँचता! अब उसमें श्रेष्ठता-बोध भी जाग रहा था। इस बदली मन:स्थिति में अकसर मिलते काम को भी वह ठुकरा देता। उसने एक तीसरे आदमी को तलाशना शुरू किया जो सीवर का ढक्कन खोलने से लेकर टैंक के अंदर के सीवर को साफ करने में उसका सहयोग करे तथा सीवर ‘छूने’ से भी उसे परहेज़ न हो! 

          रमेसर अपनी ही कहानी अपनी स्मृतियों में देख रहा है। वह वर्तमान में आया। छेनीवाले को तन्मय होकर सेप्टिक टैंक में इधर-उधर पाइप घुमाते देख उसने सोचा, यदि यह न मिला होता तो सेप्टिक टैंक सफाई वाला यह बिजनेस परवान न चढ़ पाता। फिर उसकी ओर देखते हुए रमेसर उसके ‘बड़के दिमाग’ पर मुस्कुरा उठा! ।।११।।

छेनीवाला आदमी होकर भी आदमी के बीच का आदमी नहीं है!

       पहली नजर में पागल ही समझ लिया था इसे! चेहरे और हाव-भाव से यह कुछ ऐसा ही था। इसके पहले जिन दो लोगों को अपनी टीम में शामिल किया उनकी जाति पूँछकर किया था। लेकिन इसकी जाति पूँछने की नौबत ही नहीं आ‌ई। गाँव की बस्ती से दूर सेवार में एक कमरे का इसका घर देखकर पहले यही पूँछा लिया था कि बस्ती से दूर यहाँ घर क्यों बनाया, तो इसने छूटते ही कहा था “मेरी कोई जाति नहीं है मैं जाति से बाहर हूँ इसलिए।” इस जवाब पर इससे फिर सीधे सेप्टिक टैंक सफाई टीम में शामिल होने के लिए पूँछ लिया था। इसके लिए यह सहर्ष तैयार भी हो गया था! 

         इधर ‘रहने दो अब ढक्कन खुल जाएगा’ सुनकर ‘वे’ ने रमेसर की ओर देखा। वह रम्मा के सहारे ढक्कन उठाए हुए छेनीवाले को मेनहोल से ढक्कन हटाने के लिए कह रहा है। लेकिन ‘वे’ को यह देखकर कुछ अजीब लगा कि रमेसर के दो अन्य साथी भी वहाँ थे जो इस ढक्कन को हाथ नहीं लगा रहे थे और वह भी इनसे ढक्कन नहीं हटवा रहा था जैसे ये इस ढक्कन को छूना नहीं चाहते हों! छेनीवाले ने यंत्रवत वही किया जो रमेसर ने कहा। उसने अपने हाथ से ढक्कन उलट दिया। अब पूरा मेनहोल खुल गया था। रमेसर ने इसमें झांककर अंदाजे से बोला कि इसकी गहराई लगभग आठ फीट। ‘वे’ इसकी गहराई जानते थे इसलिए ‘हाँ’ कह दिया था।

         ‘घर’ को लेकर इसकी जिज्ञासा कैसे शांत हुई होगी! इसका उत्तर इसके बचपन की कहानी में है। सेप्टिक टैंक में झाँक रहे रमेसर को देखकर ‘वे’ ने सोचा।

        घर पहुँचते ही बस्ता फेंककर वह दद्दा को ढूंढने लगा‌। उन्हें झोपड़ी में देखा। वहां भी नहीं थे। फिर अम्मा से पूँछा। पता चला बिलाक कालोनी ग‌ए हैं आते होंगे। वह घर के बाहर खड़ा उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद दद्दा उसे आते दिखाई पड़े तो वह उनकी ओर लपका लेकिन उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा मुड़ा टिन देखकर ठिठक पड़ा। दद्दा यह काम दोपहर से पहले कर लेते हैं! सोचकर वह मुड़ गया और धीमें कदमों से हैंडपंप पर चला गया। वह जानता था कि दद्दा सीधे यहीं आएंगे। दद्दा हैंडपंप पर ही गए। नल के नीचे उन्होंने झा‌ड़ू, बाल्टी और मुड़ा टिन रखा वह हैंडपंप चलाने लगा। लेकिन उत्कंठा में वह बेचैन था। हैंडपंप चलाते-चलाते उसने पूँछा, दद्दा, पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे!

          दस साल के बच्चे रमेसर से दद्दा को ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। बाल्टी धोते-धोते उनके हाथ रुक ग‌ए। विस्फारित आँखों से उसे देखने लगे। उसने भी हैंडपंप चलाना रोक दिया और अपना प्रश्न दोहराया। दद्दा, पंडी जी कह रहे थे कि बिलाक आजादी के बाद बना तो बिलाक बनने से पहले हमारा घर कहाँ था।

            “पाकिस्तान..हाँ हमारा घर पाकिस्तान में था।” बिना लाग-लपेट के दद्दा ने बोल दिया। यह सुनते ही रमेसर ने फिर हैंडपंप चलाना शुरू कर दिया और दद्दा ने बाल्टी धोना। 

       उस स्त्री को देखते ही उसने समझ लिया था कि सामने खड़ा यह व्यक्ति (छेनीवाला) सूरत और सीरत से एक जैसा नहीं है। तभी इससे उस बियाबान में घर बनाने का कारण पूँछा था। 

       उस दिन यह छेनीवाला खुशी-खुशी उसके साथ हो लिया था। कितनी मजदूरी मिलेगी, यह भी नहीं पूँछा था इसने। इसे छेनी-हथौड़ा देकर सबसे पहले मेनहोल का ढक्कन खुलवाया था और बिना हिचक के इसने वे सारे कार्य किए थे जिसे आज यहाँ कर रहा है। उस दिन जब काम पूरा होने के बाद घर के मालिक से इसने बख्शीश मांगा तो पहली बार इसके ‘बड़के दिमाग’ से परिचय हो गया था। यह बख्शीश मांगने की बात स्वयं उसके दिमाग में कभी नहीं आई थी। बख्शीश में इसे सौ रुपए मिले थे। इसे मिलाकर एक घंटे की मेहनत के उस दिन इसे साढ़े तीन सौ रूपए मिले तो यह बहुत खुश हुआ था‌‌। और पहले दिन से ही यह छेनीवाला बन गया था। तभी से सफाई का उसका यह बिजनेस भी दौड़ पड़ा है।

           जाति या कूबड़वाली स्त्री के बारे में बात कर पाने की मनोदशा में छेनीवाला कभी नहीं मिला। उसे संदेह था कि ऐसी बातचीत से नाराज़ होकर यह काम भी छोड़ सकता है। लेकिन एक दिन जब इसने कहा कि उसकी औरत एक अनाथ बच्चा पालना चाहती है तो उसे विस्मय हुआ था। आगे फिर छेनीवाले ने यह भी कहा था कि “उसकी औरत को विकलांग पेंशन के पंद्रह सौ रूपए हर महीने मिलते हैं और सफाई के काम की उसे मजदूरी भी मिल जाती है इन पैसों को जोड़कर दोनों आसानी से एक बच्चा पाल लेंगे।” इस बात से वह किंचित आश्चर्य से भर उठा था छेनीवाले की ओर देखकर उसने सोचा था, यह छेनीवाला आदमी होकर भी आदमी के बीच का आदमी नहीं है, इसीलिए इसे आदमियों की बस्ती से दूर रहना पड़ता है! सच में इंसानी जीवन की यह विद्रूपता ही तो है कि लोग अपने ही जैसे इंसान को कितना कमतर आंकने लगते हैं, शायद स्वार्थ-लिप्सा और अहंकार के छल-छद्म में डूबे ये लोग छेनीवाले जैसों को आदमी मानने से भी इनकार कर देते हैं! दद्दा की बात छोड़ भी दें तो स्वयं उसके पप्पा ने भी इन आदमियों के दंश खूब सहे थे!! 

     छेनीवाले को लेकर उसकी (रमेसर की) जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई थी लेकिन उसके (छेनीवाले के) प्रति अब उसके (रमेसर के) भाव बदल चुके थे। वह छेनीवाले की किसी भी दुखती रग को नहीं छेड़ना चाहता था। लेकिन यह स्वाभाविक है कि पाठक जिज्ञासु होता है! उसकी जिज्ञासा शांत करने के लिए लेखक को अब कहानीकार की भूमिका में उपस्थित होना होगा।  ।।१२।।

ब‌ऊकपन और छेनीवाला!        

      पाँच भाइयों-बहनों में सबसे छोटा था छेनीवाला। माँ-बाप के अतिशय लाड़-प्यार और देखभाल के तरीके से इसके मानसिक विकास में बाधा आई। इसे कभी स्कूल भी नहीं भेजा गया। यह मंद-बुद्धि तो नहीं, लेकिन धीरे-धीरे लोग इसे ‘ब‌ऊक’ समझने लगे थे। विवाह की उम्र तक आते-आते माँ-बाप भी दुनियां से कूँच कर ग‌ए थे और भाई अपने परिवारों में रम ग‌ए। अब यह उपेक्षित रह गया था। ‘एक ब‌ऊक से कौन अपनी लड़की ब्याहेगा’ जैसी बातें इसके विवाह में बाधक बनी। लोग इसका उपहास भी उड़ाते! को‌ई इसे बरगलाकर जमीन अपने नाम न करा ले, इस डर से भाईयों ने इसे मृतक बताकर इसके हिस्से की जमीन अपने नाम करा लिया था। बाद में भाई भी गाँव छोड़कर शहरों में रहने लगे थे। इसके समक्ष अब जीवन-यापन की समस्या थी।

        इधर ‘रहने दो अब ढक्कन खुल जाएगा’ सुनकर ‘वे’ ने रमेसर की ओर देखा। वह रम्मा के सहारे ढक्कन उठाए हुए छेनीवाले को मेनहोल से ढक्कन हटाने के लिए कह रहा है। लेकिन ‘वे’ को यह देखकर कुछ अजीब लगा कि रमेसर के दो अन्य साथी भी वहाँ थे जो इस ढक्कन को हाथ नहीं लगा रहे थे और वह भी इनसे ढक्कन नहीं हटवा रहा था जैसे ये इस ढक्कन को छूना नहीं चाहते हों! छेनीवाले ने यंत्रवत वही किया जो रमेसर ने कहा। उसने अपने हाथ से ढक्कन उलट दिया। अब पूरा मेनहोल खुल गया था। रमेसर ने इसमें झांककर अंदाजे से बोला कि इसकी गहराई लगभग आठ फीट। ‘वे’ इसकी गहराई जानते थे इसलिए ‘हाँ’ कह दिया था।

         ‘घर’ को लेकर इसकी जिज्ञासा कैसे शांत हुई होगी! इसका उत्तर इसके बचपन की कहानी में है। सेप्टिक टैंक में झाँक रहे रमेसर को देखकर ‘वे’ ने सोचा।

        घर पहुँचते ही बस्ता फेंककर वह दद्दा को ढूंढने लगा‌। उन्हें झोपड़ी में देखा। वहां भी नहीं थे। फिर अम्मा से पूँछा। पता चला बिलाक कालोनी ग‌ए हैं आते होंगे। वह घर के बाहर खड़ा उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद दद्दा उसे आते दिखाई पड़े तो वह उनकी ओर लपका लेकिन उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा मुड़ा टिन देखकर ठिठक पड़ा। दद्दा यह काम दोपहर से पहले कर लेते हैं! सोचकर वह मुड़ गया और धीमें कदमों से हैंडपंप पर चला गया। वह जानता था कि दद्दा सीधे यहीं आएंगे। दद्दा हैंडपंप पर ही गए। नल के नीचे उन्होंने झा‌ड़ू, बाल्टी और मुड़ा टिन रखा वह हैंडपंप चलाने लगा। लेकिन उत्कंठा में वह बेचैन था। हैंडपंप चलाते-चलाते उसने पूँछा, दद्दा, पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे!

          इधर ‘रहने दो अब ढक्कन खुल जाएगा’ सुनकर ‘वे’ ने रमेसर की ओर देखा। वह रम्मा के सहारे ढक्कन उठाए हुए छेनीवाले को मेनहोल से ढक्कन हटाने के लिए कह रहा है। लेकिन ‘वे’ को यह देखकर कुछ अजीब लगा कि रमेसर के दो अन्य साथी भी वहाँ थे जो इस ढक्कन को हाथ नहीं लगा रहे थे और वह भी इनसे ढक्कन नहीं हटवा रहा था जैसे ये इस ढक्कन को छूना नहीं चाहते हों! छेनीवाले ने यंत्रवत वही किया जो रमेसर ने कहा। उसने अपने हाथ से ढक्कन उलट दिया। अब पूरा मेनहोल खुल गया था। रमेसर ने इसमें झांककर अंदाजे से बोला कि इसकी गहराई लगभग आठ फीट। ‘वे’ इसकी गहराई जानते थे इसलिए ‘हाँ’ कह दिया था।

         ‘घर’ को लेकर इसकी जिज्ञासा कैसे शांत हुई होगी! इसका उत्तर इसके बचपन की कहानी में है। सेप्टिक टैंक में झाँक रहे रमेसर को देखकर ‘वे’ ने सोचा।

        घर पहुँचते ही बस्ता फेंककर वह दद्दा को ढूंढने लगा‌। उन्हें झोपड़ी में देखा। वहां भी नहीं थे। फिर अम्मा से पूँछा। पता चला बिलाक कालोनी ग‌ए हैं आते होंगे। वह घर के बाहर खड़ा उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद दद्दा उसे आते दिखाई पड़े तो वह उनकी ओर लपका लेकिन उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा मुड़ा टिन देखकर ठिठक पड़ा। दद्दा यह काम दोपहर से पहले कर लेते हैं! सोचकर वह मुड़ गया और धीमें कदमों से हैंडपंप पर चला गया। वह जानता था कि दद्दा सीधे यहीं आएंगे। दद्दा हैंडपंप पर ही गए। नल के नीचे उन्होंने झा‌ड़ू, बाल्टी और मुड़ा टिन रखा वह हैंडपंप चलाने लगा। लेकिन उत्कंठा में वह बेचैन था। हैंडपंप चलाते-चलाते उसने पूँछा, दद्दा, पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे!

          इधर ‘रहने दो अब ढक्कन खुल जाएगा’ सुनकर ‘वे’ ने रमेसर की ओर देखा। वह रम्मा के सहारे ढक्कन उठाए हुए छेनीवाले को मेनहोल से ढक्कन हटाने के लिए कह रहा है। लेकिन ‘वे’ को यह देखकर कुछ अजीब लगा कि रमेसर के दो अन्य साथी भी वहाँ थे जो इस ढक्कन को हाथ नहीं लगा रहे थे और वह भी इनसे ढक्कन नहीं हटवा रहा था जैसे ये इस ढक्कन को छूना नहीं चाहते हों! छेनीवाले ने यंत्रवत वही किया जो रमेसर ने कहा। उसने अपने हाथ से ढक्कन उलट दिया। अब पूरा मेनहोल खुल गया था। रमेसर ने इसमें झांककर अंदाजे से बोला कि इसकी गहराई लगभग आठ फीट। ‘वे’ इसकी गहराई जानते थे इसलिए ‘हाँ’ कह दिया था।

         ‘घर’ को लेकर इसकी जिज्ञासा कैसे शांत हुई होगी! इसका उत्तर इसके बचपन की कहानी में है। सेप्टिक टैंक में झाँक रहे रमेसर को देखकर ‘वे’ ने सोचा।

        घर पहुँचते ही बस्ता फेंककर वह दद्दा को ढूंढने लगा‌। उन्हें झोपड़ी में देखा। वहां भी नहीं थे। फिर अम्मा से पूँछा। पता चला बिलाक कालोनी ग‌ए हैं आते होंगे। वह घर के बाहर खड़ा उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद दद्दा उसे आते दिखाई पड़े तो वह उनकी ओर लपका लेकिन उनके हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा मुड़ा टिन देखकर ठिठक पड़ा। दद्दा यह काम दोपहर से पहले कर लेते हैं! सोचकर वह मुड़ गया और धीमें कदमों से हैंडपंप पर चला गया। वह जानता था कि दद्दा सीधे यहीं आएंगे। दद्दा हैंडपंप पर ही गए। नल के नीचे उन्होंने झा‌ड़ू, बाल्टी और मुड़ा टिन रखा वह हैंडपंप चलाने लगा। लेकिन उत्कंठा में वह बेचैन था। हैंडपंप चलाते-चलाते उसने पूँछा, दद्दा, पहले जब यहां ब्लॉक नहीं था तब हम कहाँ रहते थे!

          दस साल के बच्चे रमेसर से दद्दा को ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। बाल्टी धोते-धोते उनके हाथ रुक ग‌ए। विस्फारित आँखों से उसे देखने लगे। उसने भी हैंडपंप चलाना रोक दिया और अपना प्रश्न दोहराया। दद्दा, पंडी जी कह रहे थे कि बिलाक आजादी के बाद बना तो बिलाक बनने से पहले हमारा घर कहाँ था।

            “पाकिस्तान..हाँ हमारा घर पाकिस्तान में था।” बिना लाग-लपेट के दद्दा ने बोल दिया। यह सुनते ही रमेसर ने फिर हैंडपंप चलाना शुरू कर दिया और दद्दा ने बाल्टी धोना। 

       रमेसर छेनीवाले की इस कहानी से अनजान हो सकता है लेकिन इसकी जाति से अनजान नहीं रह सका! कहीं-कहीं किसी इलाके में सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय छेनीवाले को जानने वाले लोग मिल जाते हैं। ऐसे समय जब रमेसर और छेनीवाले, दोनों के हाथ सक्शन पाइप के ‘कीचड़’ से सने होते हैं तब इन लोगों की छेनीवाले के लिए बातें और व्यवहार इसकी ऊँची जाति बताने के लिए काफी होता है। 

      वैसे यह कहानी छेनीवाले की नहीं रमेसर की है। रमेसर और छेनीवाला, दोनों के जीवन के शेड भिन्न हैं लेकिन क्या इसपर लिखी इबारत का अर्थ एक है? शायद इस इबारत का अर्थ ‘वे’ को पता हो!! ।।१३।।

 रमेसर अपनी अनुभूतियों से अपना चरित्र गढ़ता है !

         दरअसल किसी व्यक्ति की चेतना-शक्ति ही अनुभूतियों की पहचान कर पाती है। वह इन्हें चिह्नित और वर्गीकृत कर मानसपटल पर अंकित करती चलती है। इसमें गहरी अनुभूति ही व्यक्ति के मानस पर जीवनपर्यंत अंकित रह पाती हैं। जो उस व्यक्ति की जीवन-दशा को दिशा देती है। यह चेतना-शक्ति अनुभूतियों के संयोजन से निर्मित मनोभाव द्वारा व्यक्ति का चरित्र गढ़ता है। साहित्य में यही ‘करेक्टर’ है। लेखक इन्हीं अनुभूतियों को उकेरकर ‘करेक्टर’ गढ़ता है। इस कहानी में रमेसर भी एक ‘करेक्टर’ है जो स्वयं की चेतना-शक्ति से पायी अपनी अनुभूतियों से अपना चरित्र गढ़ता है। और किसी का चरित्र या उसकी निर्मिति ही उसकी कहानी है, जिसमें मार्मिकता का ‘सूत्र’ होता है लेखक इस सूत्र को पकड़कर चलता है। ‘वे’ रमेसर या छेनीवाले के जिस वर्तमान क्षण के साक्षी हैं, वह रुक्ष है वर्णन है, इसमें ‘कहानी तत्व’ नहीं है। लेकिन जब रमेसर की मार्मिक स्मृतियाँ इस ‘दृश्य’ से संम्पृक्त होती हैं तो ‘वे’ का यह वीक्षण स्वयंमेव कहानी बन जाता है। आज जिस रमेसर को ‘वे’ देख रहे हैं उस ‘रमेसर’ की बनावट के पीछे चेतना-शक्ति प्रदत्त उसके मनोभाव हैं। ऐसे मनोभाव किसी को भी अँधेरे बियाबान से निकलने का रास्ता दिखाते हैं इसलिए रमेसर अपने वर्ग का प्रतिनिधि चरित्र है। अतः यह कहानी केवल उसकी ही कहानी नहीं है उसके वर्ग की कहानी है!

       सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए डेढ़ घंटे बीत चुके हैं। इसपर ‘वे’ की नज़र निगरानी के लिए नहीं बल्कि उत्सुकतावश जमी है। रमेसर और छेनीवाला दो नहीं जैसे एक व्यक्ति हों। दोनों का व्यक्तित्व गड्ड-मड्ड दिखाई पड़ रहा था एक दूसरे के काम में सहयोग करते हुए! बल्कि रमेसर के टीम के दो अन्य साथी इस परिदृश्य में अब तक ओझल ही रहे। इसीलिए ‘वे’ की नोटिस में दोनों नहीं हैं। इधर ‘वे’ देख रहे हैं कि रमेसर और छेनीवाला दोनों मेनहोल पर क‌ई मिनट से झुके हैं। दोनों बारी-बारी एक-दूसरे से सक्शन पाइप अपने हाथ में लेकर मेनहोल में झांक-झांककर इसे सेप्टिक टैंक में घुमाते हुए बचा-खुचा सीवर सुड़कवा रहे हैं! शायद सेप्टिक टैंक का यह सफाई कार्य अब अपने अंतिम क्षणों में है। इस बीच ‘वे’ ने छेनीवाले को लापरवाही से सक्शन पाइप हाथ में पकड़ते हुए देखा! वह पाइप के उस हिस्से पर हाथ लगा रहा है जो टैंक के सीवर में जाता है। इसलिए उसका हाथ सीवर के ‘कीचड़’ से सने हैं। लेकिन रमेसर इस मामले में सजग है वह पाइप के ऊपरी हिस्से को ही पकड़ता है। 

        अचानक ‘वे’ से मुखातिब होकर रमेसर ने उनसे मेनहोल में देखने के लिए कहा। 'वे' ने जाकर सेप्टिक टैंक में झांका, तली में कीचड़ नहीं केवल पानी था। उनका अनुमान था कि टैंक का गाढ़ा कीचड़ समरसेबल के पानी में पतला होकर सक्शन पाइप द्वारा सुड़का जा चुका है और अब तीन इंच से भी कम पानी बचा है। रमेसर के जब यह कहा कि पाइप अब पानी नहीं खींच पाएगा तो उन्होंने भी इस पर सहमति जताया। क्योंकि वे देख चुके थे कि  सक्शन पाइप के आधे मुहाने से भी नीचे पानी है। अब रमेसर ने टैंक में गिरते पानी को बंद कराने के लिए छेनीवाले से समरसेबल का पाइप टैंक से बाहर कराया। फिर वह रमेसर के कहने पर सक्शन पाइप को भी सेप्टिक टैंक से निकालकर धोने लगा। इस सक्शन पाइप का एक सिरा टैंकर के नोजल से जुड़ा था। जिसे एक अन्य साथी ने हटाया। छेनीवाले के अन्य साथियों को देखकर ‘वे’ को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पाइपें धुलने के बाद ही उसके साथी इसे छुएंगे! उनके मन में आया कि रमेसर से इन साथियों के बारे में कुछ पूँछे। लेकिन रमेसर उन्हें कोई चीज दिखाने के लिए सेप्टिक टैंक के किनारे सबसे ओझल रहने वाले स्थान की तरफ ले गया। उस स्थान की ओर इशारा कर उनसे धीरे से बोला, 

        “देखिए इसे मैंने यहां किनारे रखवा दिया हूँ, सोचा आपको बता दूँ कि कहीं गलती से कोई इसे हाथ न लगा दे, सुबह किसी से कहकर इसे आप फेंकवा देना।”

           ‘अरे! यह तो सीवर के कीचड़ में लिथड़ा हुआ वही कपड़ा है जिसे इस रमेसर ने सेप्टिक टैंक से निकलवाया था..तो इसे यहाँ रखवा दिया इसने! अपने आदमियों से कहकर इसे कहीं भी फेंकवा सकता था यह!!’ ‘वे’ ने तनिक विस्मय से सोचा। फिर भी रमेसर से कुछ नहीं कहा। ।।१४।।

बदला नहीं वह बदलाव का आकांक्षी है!

           कीचड में लिथड़े इस कपड़े को वे फेकवाएंगे रमेसर की इस बात से जैसे उनके (वे) अहं को ठेस पहुँचा था। उनके खयाल में आया कि इन महोदय (रमेसर) के दद्दा और पप्पा हाथ से मैला उठाते रहे लेकिन आज इन्हें सीवर में लिथड़े इस कपड़े को फेंकने से परहेज है इसे ये छूना नहीं चाहते! और तो और, छेनीवाले से भी इसे फेंकने के लिए नहीं कहा, आखिर क्यों? लेकिन अगले ही पल वे मन को सांत्वना देने लगे कि रमेसर सेप्टिक टैंक में पड़ी ऊल-जुलूल कूड़े जैसी चीजों की सफाई करने नहीं आया है, यह ‘कपड़ा’ सीवर का हिस्सा तो नहीं। वह तो केवल ‘कीचड़’ की सफाई करने आया है। पैसा भी उसे ‘कीचड़’ सफाई का ही मिलना है। तो फिर क्यों इस कपड़े को फेंके यही क्या कम है कि उसने इसके बारे में बता दिया नहीं तो अनजाने कोई इसे हाथ लगा देता!! ‘वे’ अपने अहं को कुछ यही सांत्वना दिए। इससे वे सहज हुए तो “अच्छा ठीक है” कहकर रमेसर की ओर देखा जहाँ उन्हें एक सपाट चेहरा मिला!

       बल्ब की मद्धिम रोशनी में रमेसर के इस सपाट चेहरे के पीछे के भाव से ‘वे’ अनजान रह ग‌ए। रमेसर को एक बात हमेशा कचोटती रही है। जब एक साँझ को दद्दा हाथ में बाल्टी, झाड़ू और छोटा टिन लिए हुए आते दिखाई पड़े थे तो उसे बहुत अजीब लगा था क्योंकि दद्दा यह काम दोपहर से पहले ही कर लेते हैं। लेकिन बाद में उसे पता चला था कि दद्दा को उस दिन किसी काम से बाहर जाना पड़ा था इसलिए सुबह ब्लॉक कॉलोनी में मैला उठाने नहीं पहुँचे थे। दोपहर बाद उनके लौटने पर साहब ने उन्हें बुलाकर बहुत डाटा था और तुरंत जाकर मैला उठाने के लिए कहा। फिर उस दिन सांझ को वे मैला उठाने ग‌ए। इसे वह आज तक नहीं भूला है। अहं की कौन कहे उस दिन उसके निरीह दद्दा की मानवीय गरिमा का भी ध्यान नहीं रखा गया था। उन दिनों यह सोचकर कि मैला तो साहबों का ही था, इसे उठाने के लिए दद्दा को क्यों डाटा गया, वह गुस्से से भर उठता और उसकी मुट्ठियां भिंच जाती। लेकिन किसी बदले की भावना का वह शिकार नहीं हुआ। बदला नहीं वह केवल बदलाव का आकांक्षी है! जिसके लिए उसकी पीढ़ियाँ गुजर ग‌ईं थीं। बदलाव की यह आकांक्षा जब उसमें तारी होता तो उसका चेहरा ऐसे ही सपाट हो जाता है। 

       रमेसर ने किंचित गर्व से ‘वे’ को नजर भर देखा! ‘वे’ सेप्टिक टैंक के बगल में पड़े सीवर के कीचड़ से सने उस कपड़े को देख रहे थे। उनके कंधे से कंधा मिलाए वह भी उनके बराबर खड़ा हुआ उनसे ही इस कपड़े को फेंकवाने की बात कह रहा है! यह बदला नहीं, बदलाव लाने का आग्रह था। इस आग्रह में उसके आत्मविश्वास का सामर्थ्य है! फिर न जाने क्यों उसने आसमान की ओर भर नजर देखा, जैसे अपने इस सामर्थ्य को वह दद्दा और पप्पा को दिखाना चाहता हो! उधर ऊपर आसमान में टिमटिमाते तारे भी उसके बात की गवाही दे रहे थे!! काफी समय हो गया कहकर अचानक वह मुड़ा और ‘वे’ को छोड़कर पोर्टिको की ओर चल दिया। जहाँ कुर्सी पर बैठे बाबू जी से उसे आज के काम का हिसाब करना है।

         उसे पोर्टिको की ओर जाते देख ‘वे’ भी पीछे-पीछे चल पड़े। लेकिन तभी छेनीवाले ने उनसे हैंडपंप चलाने के लिए कहा। उसके हाथ और बिना चप्पलों के पैर सीवर के ‘कीचड़’ में सने थे। उसे देखते हुए ‘वे’ को ग्लानि हुई कि बिना दस्ताने और सुरक्षा पोशाक के सीवर सफाई करने वालों को मैन्युअल स्कैवेंजर क्यों नहीं माना जाता! उनका वश चले तो वे इन्हें भी मैन्युअल स्कैवेंजर मान लें! ‘वे’ ने जाकर हैंडपंप चलाया और छेनीवाले ने अपने हाथ-पैर धोए। ।।१५।।

NAMASTE             

       पोर्टिको में आते ही रमेसर ने बाबूजी को बताया कि टैंक की सफाई अच्छे से हो गई है ‘वे’ ने इसे देख लिया है। इसके बाद उनमें यह बातचीत हुई,

            बाबूजी ने पूँछा, “तो कितना दे दें।”

         “इसमें क्या बताना, साढ़े तीन हजार का एक चक्कर  होता है।” रमेसर ने कहा। 

         “इस हिसाब से तो फिर सात हजार हो जाएगा, जबकि बात पाँच हजार में हुई थी।” बाबू जी ने हिसाब लगा कर बोला। 

         “दो चक्कर भी तो लगाना पड़ा..अच्छा ठीक है..आपस की बात है आप ढाई हजार प्रति चक्कर के हिसाब से दे दीजिए।” रमेसर ने मुस्कुराकर कहा।

         बाबूजी ने गिनकर रमेसर को पाँच हजार रुप‌ए दिए। उसको संतुष्ट देख ‘वे’ को पता चल गया कि एक टैंकर सीवर सफाई के कितने रूपए लगते हैं।  

         तब तक छेनीवाला अपना बख्शीश वहाँ लेने आ पहुँचा। बाबू जी ने उसे पचास रुपए दिए लेकिन उसने नाखुशी जाहिर कर दिया। उसकी नाखुशी पर रमेसर ने बाबूजी को बताया कि इसे सौ रूपए चाहिए। बाबूजी के पोटली में ढूँढ़ा। लेकिन उसमें सौ रुपया नहीं मिला तो छेनीवाला मायूस हो गया‌। रमेसर ने उसे समझाया कि चलो, अब नहीं है तो क्या करोगे। ‘वे’ देख रहे उन्होंने अपनी जेब से सौ रुपए का एक नोट निकालकर उसे पकड़ा दिया। मनचाहा बख्शीश पाते ही छेनीवाला और रमेसर दोनों खुश हो ग‌ए। फिर रमेसर ने बाबू जी का पहले दिया पचास रुपया छेनीवाले से वापस कराना चाहा। लेकिन वे ने इसे वापस लेने से मना कर दिया।

            रमेसर की टीम अब जाने की तैयारी करने लगी। एक सदस्य ने सक्शन पाइप समेटकर टैंकर पर रखा तो दूसरा ट्रैक्टर की ड्राइविंग शीट पर बैठ गया। इधर रमेसर छेनीवाले से कुछ कहने को हुआ लेकिन अचानक से चुप हो गया और उसे वहाँ ले गया जहाँ सीवर में लिथड़ा वह कपड़ा पड़ा था। इसे दिखाकर किसी चीज में लपेटकर इसको दूर फेंक आने के लिए कहा। इसे लेकर अचानक रमेसर का मन कैसे बदल गया! वे सोचने लगे। 

      रमेसर की चेतना-शक्ति ने बचपन से ही उसे आत्मसम्मानी बनने के लिए प्रेरित किया। जन्म, जाति और कर्म के दुश्चक्र से बाहर निकलने के लिए उसे पहले नैतिक धरातल अपना व्यक्तित्व मजबूत रखना था। इसीलिए गरीबी और तमाम आर्थिक परेशानियों के क्षण में भी वह लालची और स्वार्थी नहीं बना क्योंकि ये गुण व्यक्ति को छोटा बनाते हैं। किसी के बराबर खड़े होकर सौदेबाजी करने का साहस भी वह इसलिए अर्जित कर पाया कि न तो किसी के एहसान तले दबकर उसे कमजोर और छोटा बनना था और न ही किसी को छोटा बनाना! दद्दा और पप्पा जैसे दो छोर के बीच खड़ा वह जीवन की स्थितियों को देख, सुन और समझ रहा था। उसके लिए कोई काम छोटा-बड़ा या ऊँच-नीच नहीं है उसे अपने काम का मेहनताना चाहिए बस! बख्शीश में छेनीवाले को सौ की जगह डेढ़ सौ रूपए मिले। वह ईमानदार और खुद्दार सौदेबाज और सेवा प्रदाता है और उसमें पेशागत ईमानदारी भी है इसीलिए अतिरिक्त बख्शीश से मिली खुशी के प्रतिमूल्य में उसने छेनीवाले से उस कपड़े को फेंकने के लिए कहा। छेनीवाला दूर कहीं उस कपड़े को फेंक भी आया था।

            पुनः हैंडपंप पर छेनीवाले का हाथ धुलाते हुए ‘वे’ उसके और रमेसर के बारे में सोचने लगे। रमेसर एक दुश्चक्र से पार पाने की जद्दोजहद में अपनी चेतना-शक्ति और मार्मिक स्मृतियों से प्रेरणा पाता है तो वहीं छेनीवाले का यह चरित्र ‘परिस्थितिजन्य’ है उसके जीवन में कोई प्रेरणाश्रोत नहीं। बल्कि उसका ब‌ऊकपन, उसके भाई और उसका जाति निकाला उसकी आज की ‘परिस्थिति’ के कारक हैं। दोनों की पीड़ा की अनुभूति का धरातल भिन्न हैं! छेनीवाले में आंतरिक और वाह्य किसी प्रकार का कोई संघर्ष नहीं। ज्यादा से ज्यादा उसका संघर्ष ‘मार्मिक चालाकी’ तक सीमित है। लेकिन रमेसर आंतरिक और वाह्य और चेतना के प्रत्येक स्तर पर, संघर्षशील है! यह रमेसर के लिए कितनी मार्मिक बात है कि उसके और छेनीवाला दोनों के हाथ सीवर की कीचड़ में सने हैं फिर भी छेनीवाले के साथ वैसा भेदभाव नहीं होता जैसा रमेसर के साथ होता है! इससे समझा जा सकता है कौन नायक है और यह कहानी किसकी है!!

          वे याद करते हैं एक स्वच्छकार विमुक्ति सम्मेलन में इसी नायकत्व के कारण रमेसर जैसे एक योद्धा को सम्मानित कराया जा रहा था। उस सम्मेलन में कुछ ऐसी ही कहानी उस व्यक्तित्व की वहाँ बताई जा रही थी। इसीलिए आज इस सेप्टिक टैंक के सफाई अभियान पर उनकी दृष्टि लगातार जमी रही। यहाँ स्वयं रमेसर उस स्वच्छकार विमुक्ति में सम्मानित होने वाले योद्धा की हू-ब-हू प्रतिमूर्ति है।

        इसी बीच ट्रैक्टर स्टार्ट होने की आवाज सुन छेनीवाला ट्रैक्टर पर सवार होने चला गया। बाबूजी के पास खड़ा रमेसर उनसे नमस्ते किया और ट्रैक्टर की ओर मुड़ा। तभी ‘वे’ पर उसकी दृष्टि पड़ी, फिर वे को भी उसने हाथ जोड़कर नमस्ते कहा। प्रतिउत्तर में ‘वे’ ने भी हाथ जोड़े और नमस्ते बोला!! लेकिन अगले ही पल जब उनको अपने इस ‘नमस्ते’ का खोखलापन समझ में आया तब उनका ध्यान रमेसर और उसकी टीम के ईकोसिस्टम के लिए बने NAMASTE पर गया!! रमेसर हो या छेनीवाला या उसकी टीम के अन्य सदस्य, इनके लिए खड़े होकर यह NAMASTE बोलना चाहिए। जिसका अर्थ है National Action For Mechanised Sanitation Ecosystem. सरकार इनके लिए 2022 से ही यह NAMASTE बोल रही है! अब तो 2025 का आगाज हो चुका है ऐसे में यह NAMASTE अब इतनी जोर से बोला जाना चाहिए कि इसकी आवाज देश में सभी जगह सबको सुनाई पड़े और जिसकी प्रतिध्वनि बहुत समय तक गूँजती रहे। ।।१६।।

           (जी हाँ अब NAMASTE…NAMASTE… )

                                       - विनय कुमार तिवारी 

शनिवार, 4 मई 2024

सिंहोरा

      मुख्य सड़क से गाँव जाने वाली सड़क पर कार मुड़ी। पहले खेत शुरू हुए। इनमें लहलहाती गेहूँ की बालियाँ बस जैसे पकने को तैयार हों। बचपन में दादी के साथ इन खेतों में काम करते मजदूरों के लिए पानी चबैना लेकर आई हूँ। तब यह पक्की सड़क नहीं सूनसान खोरी हुआ करती थी। जिसके दोनों ओर सरपत खड़े होते। इसके बीच से गुजरते हुए मुझे भय लगता। बरसात के दिनों में इस खोरी में पानी इकट्ठा हो जाता तो किसान इसे दुबले से उलचकर धान की सिंचाई कर लेते थे। लेकिन आज खोरी और सरपत का नामोनिशान मिट चुका है बल्कि उसकी जगह बनी यह सड़क हमारे गाँव से आगे एक दूसरे गाँव को भी जोड़ती है। घर-घर मोटरसाइकिल और चारपहिया होने तथा स्कूली बच्चों की आवाजाही से सुबह-शाम यह सड़क गुलजार हो उठती है। अचानक ज़ेहन में कुछ यादें उभर आई। मैं मुस्कुरा उठी। मुझे मुस्कुराते पाकर कार चला रहे बेटे ने पूँछा, मम्मी तुम मुस्कुरा क्यों रही हो? मैंने कहा, कुछ नहीं, बस ऐसी ही कोई बात याद आ गई। उस धूलभरी खोरी में दादी के साथ चलते हुए मैं किसी बड़े आदमी के पैरों के निशान के ऊपर पैर रखती और उससे अपने पैर की तुलना करती या बैलगाड़ी के पहिए से बने लीक पर मैं पैर धरते चलती। अपने पैरों की छाप देखकर मुझे मजा आता। लेकिन मुझे कूदते-फाँदते चलते देख दादी डांटने लगती तो उन्हें मैं अपने पैरों के निशान दिखाने लगती। दादी मुझे नसीहत देती, बिटिया सीधे अपनी राह चलो, किसी की बनाई लीक पर नहीं चलते। इस बात के साथ कहीं पढ़ी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की यह कविता किलीक पर वे चलें/ जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं” याद आ गई थी इसीलिए मैं मुस्कुराई थी। यह दादी की ही सीख थी कि मैं जैसी हूँ वैसी ही बनी रही किसी की लीक पर नहीं चली। लेकिन यदि जमाने से पूँछो तो उत्तर मिलता है तुम वैसी नहीं तो ऐसी नहीं हो! यहाँ लोग स्वयं की राह पर चलने की नहीं, किसी न किसी की लीक पर चलने की ही सलाह देते हैं। इसीलिए तो मेरे ‘वो’ भी कभी-कभी मुझे ‘पगली’ कह बैठते हैं। इसपर मैं उनसे यही कहती हूँ, ‘हाँ जो अपनी राह चलते हैं उन्हें लोग पागल कह देते हैं।’ 

          खेतों की सीमा समाप्त हुई तो बाग शुरू हुए। मेरी आँखें चुरैलिया वाले बरा के उस विशाल वृक्ष को खोजने लगी, जो इस खोरी से गाँव की ओर जाते समय बाग से पहले पड़ता है। लेकिन उसे ठूँठ जैसी हालत में देख मैं चकरा ग‌ई। बाग के छोर पर खड़ा मेरे बचपन का विशाल बरा का वह वृक्ष पेड़ों के सरदार जैसा तब बाग की रखवाली करते हुए दिखाई देता। किसानों ने अपने खेत उसके तने के पास तक फैला लिए हैं। शायद इसकी दूर तक फैली शाखाओं को सहारा देने वाली जड़ें नष्ट हो गई होंगी या उन्हें जमीन से महरूम कर दिया गया होगा, फिर बिन सहारे के बरा की वे शाखाएं टूटकर गिर पड़ी होंगी। मेरे बचपन के बरा के उस पेड़ पर रहने वाली चुड़ैलिया का क्या हुआ अब वह कहाँ रहती होगी! शाम गहराने पर जिसके डर से बच्चे इस बरा के आसपास नहीं जाते थे! उन दिनों दादी भी हमें डराती, कहती, बरा के पेड़ के पास जाने वाले अकेले बच्चे को चुरैलिया पकड़ लेती है। लेकिन दिन-दोपहरी में चरवाहे हों या किसान उस बरा के नीचे बैठे सुस्ताते दिखाई पड़ते, और तो और, गर्मियों के दिनों में इसके नीचे पशुओं का भी जमावड़ा होता। यह देखकर मैं दादी से पूँछती, इन्हें चुड़ैलिया क्यों नहीं पकड़ती, तो वह कोई उत्तर न देकर केवल मुस्कुरा देती।

       और यह बाग जिसके बीच से मैं गुजर रही हूँ तब कितना डेंस था! आम और महुआ के वे दरख्त नहीं रह ग‌ए, जिनके इर्द-गिर्द हम-उम्र सहेलियों के साथ मैं खेला करती। वही बाग अब खंडहर सा उजाड़ दिखाई दिया। लेकिन मेरी बचपन की यादों को सँजोए भीटे वाला तालाब और वहां बना शिवाला दूर से अभी भी वैसे ही दिखाई दिया जैसे मेरे बचपन में था। तीज पर गाँव की महिलाएं यहाँ ऐसे जुटती जैसे कोई मेला लगा हो! लेकिन सुनती हूँ कि तीज-त्यौहारों पर अब महिलाओं का यहाँ वैसा जमावड़ा नहीं होता।

        बेटे ने कार में ब्रेक लगाया तो देखा, हम गाँव की गली में थे। ये दुल्ली काका थे। साइकिल के कैरियर पर हरा चारा बाँधकर खेत से लौट रहे हैं। कार के सामने आ ग‌ए थे। किनारे हुए तो बेटे ने उनके बगल से धीरे-धीरे कार निकाला। कितने बूढ़े हो ग‌ए हैं कक्कू! मुझे नहीं देखा, नहीं तो मेरा हालचाल जरूर पूँछते। गाँव की यह गली सँकरी थी। मैंने बेटे को सावधानी से कार चलाने के लिए कहा। गाँव भी कितना बदल गया है, अब कच्चे घर नहीं रह ग‌ए, छोटे-बड़े सभी घर पक्के हो चुके हैं। 

        एक मोड़ आया। जैसे घर की गौरैया घर के आँगन के प्रत्येक कोने से परिचित होती है वैसे ही मैं इस मोड़ से परिचित थी। नजर घुमाई। मेरा हृदय धक से रह गया। यह सिंहोरा थी। मेरी बचपन की सहेली‌। दीन-हीन सी मैली-कुचैली साड़ी में लिपटी अपने घर के दरवाजे पर खड़ी थी! वह मुझे ही देख रही थी। उसके चेहरे का निर्विकार भाव सुख-दुख से विरक्ति वाला नहीं, बल्कि बेबसी का था। वैसे ही जैसे किसी मजबूत बाँध के पीछे कोई उफनाई नदी आकर ठहर जाए! मैं विस्फारित आँखों से उसे देखने लगी। हम दोनों एक दूसरे को तब तक देखती रही जब तक कार मुड़कर आगे नहीं निकल आई। मन में आया, गाड़ी रुकवाकर बचपन की इस सहेली से मिल लूँ, लेकिन बेटे से कार रोकने के लिए नहीं कह सकी। सिंहोरा से मैं कब मिली थी, याद नहीं। यह तो सुना था कि वह विधवा हो गई है और उसे कोई बच्चा नहीं है। विवाह के कुछ बरस बाद एक बेटा हुआ था उसे, लेकिन सौर में ही उसके नवजात की मौत हो गई थी। उस बच्चे को जन्मते ही ठंडे पानी से नहला दिया गया जिससे उसे निमोनिया हो गया था। इसके आठ-दस साल बाद बीमारी से उसके पति की मृत्यु हुई। बेचारी सिंहोरा आज कैसी हालत में है!

         ..अरे! इस मोटर में फूटो बैठी है? हाँ फुटेरा ही तो है! बहुत साल हो गए थे इसे देखे..गौना था जब फुटोरा से मिलने ग‌ई थी। सुना था, बाद में इस फूटो का आदमी अफसर हो गया था। और जो मोटर चला रहा है…वह फुटेरा का बेटा होगा…यदि उसका भी बेटा जिया होता तो ऐसे ही होता…

         सिंहोरा के हृदय में एक टीस सी उठी और उसकी आँखें डबडबा आईं। 

        “सिंहोरिया…हे सिंहोरिया..कहाँ मर गई रे..” यह बिब्बो की आवाज थी। चिल्लाती काहे हो..आती हूँ, बोलकर सिंहोरा ने अपनी डबडबाई आँखों को अपने मैले-कुचैले आँचल से पोंछ लिया। वह मुड़ी तो सामने माँ बिब्बो थी जो पचहत्तर साल के वय से ऊपर थी। बिब्बो फिर बोली थी, चिल्लाऊँ न तो क्या पूजा करूँ…तेरा भाई आता होगा उसके लिए कुछ बना दे, नहीं तो चार गारी देगा तुझे। सिंहोरा कुछ न बोली, घर के अंदर चली गई। 

       भाई तो भाई, बिब्बो भी न जाने क्यों हर वक्त उससे चिढ़ी रहती है, बात-बात पर उसे झिड़कना-दुत्कारना जैसे उसकी आदत बन गई है..यही बिब्बो पहले उसकी खूब मया करती, यहाँ तक कि विवाह के बाद ससुराल में उसे ज्यादा दिन न रहने देती। महीना-दो-महीना बीता नहीं कि बुला लेती। विवाहित होने के बावजूद घूम-फिरकर उसका समय मायके में ही बीतता। 

       सिंहोरा अपनी माँ को ‘बिब्बो’ ही बोलती है। बुआ माँ को ‘भाबो’ कहती थी,  यह ‘भाबो’ उसकी जुबान में ‘बिब्बो’ हो गया। धीरे-धीरे पूरा गाँव उसकी माँ को ‘बिब्बो’ के नाम से जानने लगा। उसके नाम ‘सिंहोरा’  के पीछे भी एक कहानी है। साधारण नैन-नक्श वाली सिंहोरा अपने छुटपन में गोल-मटोल हुआ करती थी। बिब्बो के पास एक खूबसूरत सिंदूरदानी थी। जिसे वह जतन से बक्से में छिपा कर रखती। माँ प्यार से कहती, तू मेरी सिंदूरदानी जैसी सुंदर गोल-मटोल सिंहोरा है और उसे ‘सिंहोरा’ कहकर बुलाती।

         सुबह-शाम दोनों टैम की रसोईं की जिम्मेदारी उसी की है‌। माँ की झिड़की खाकर वह रसोईं में आ ग‌ई थी। उसकी आँखें फिर भर आई। जीवन के पन्ने पर हँसने और रोने में अन्योन्याश्रित संबंध लिखा होता है! जो हँस सकता है वही रो भी सकता है। लेकिन इसी पन्ने पर सिंहोरा के लिए जैसे हँसना लिखा ही नहीं था, इसीलिए उसे कभी ठीक से रोना भी नहीं आया‌। वह जी रही या जीयाई जा रही, उसे नहीं पता। पति को मरे एक माह भी नहीं हुए थे कि बिब्बो ने उसे ससुराल से बुला लिया था। तब बिब्बो बहुत दुखी दिखाई देती! यहाँ तक कि खाना-पीना तक भूल ग‌ई थी वह। विधवा के रूप में उसे देख जब-तब वह रो भी पड़ती। तब चुपचाप वह बिब्बो को निहारती। धीरे-धीरे बिब्बो का यह रोना-धोना बंद हो गया था। कुछ महीने बाद जब देवर उसे लेने आया तो बिब्बो ने उसको यह कहकर लौटा दिया था कि दुख भूलने के लिए सिंहोरा अभी नैहर में ही रहेगी। 

      उसने याद किया। इसके साल भर बाद उसकी देवरानी आई थी, साथ में वह देवर भी था। उसे ससुराल लिवा जाने के लिए देवरानी ने बिब्बो से खूब मिन्नतें की थी। “अम्मा जिज्जी हमारी बड़ी हैं वे घर की मालकिन बनकर रहेंगी.. इन्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने देंगे हम लोग..इन्हें जाने दें..।” लेकिन तब बिब्बो को उसकी कितनी फ़िक्र करती थी! तभी तो देवरानी से उसने कहा था, “यह सिंहोरा के मान-अपमान का सवाल है..देखो, जब पति ही नहीं रहा तो ससुराल जाकर वह क्या करेगी.. अब उसका वहां कौन है जो उसके मान की परवाह करेगा? वहाँ जाकर उसे अपमान नहीं सहना..यहाँ वह न‌इहर में अपने माँ-बाप-भाई के घर रहेगी तो कम से कम इज्जत से तो जियेगी!”  

       “नहीं अम्मा..उनका घर तो ससुराल ही है..आखिर जिज्जी हमारी भी तो कुछ हैं...और ये..ये भी तो यही कहते हैं कि माँ नहीं है तो क्या हुआ, भाभी तो हैं! अम्मा ये जिज्जी को माँ की ही तरह इज्जत देंगे..” देवर की ओर इशारा कर उसकी देवरानी ने जैसे गिड़गिड़ाते हुए कहा था। फिर बिब्बो को मनाने के लिए उसके पैर भी पकड़े थे। उस दिन वह इसी बिब्बो के पीछे खड़ी एक हाथ से आँचल मुँह में ठूँसे चुपचाप यह सब देख रही थी। फिर देवरानी ने रोते हुए उसके भी तो पैर पकड़ लिए थे, उससे कह रही थी, जिज्जी, अम्मा को तुमही समझाओ..क्या वह आपका घर नहीं और हम लोग आपके कुछ नहीं..बोलो जिज्जी..कुछ बोलती क्यों नहीं…” लेकिन काठ की बनी वह कुछ भी नहीं बोल पायी थी।  

        कैसे फूटते उसके मुँह से बोल? बिब्बो आदर्श मां जो थी, बचपन से ही उसे सिखाती आई थी, यह न करो वह न करो, ऐसे नहीं वैसे करो। एक-एक कहा माना था उसने बिब्बो का। कंडा सीला था लकड़ी भी नहीं जल रही थी। फुंकनी काम नहीं आ रही। धुएं की घुटन से निकल कुछ पल के लिए खुली हवा में साँस लेने का उसका मन हुआ। लेकिन बिब्बो देखेगी तो दस बात बोलेगी और भाई भी चिल्लाएगा। वैसे भी जब जीवन ही धुँआसे में डूब जाए तो क्या खुली हवा और क्या बंद! वह चूल्हे में पड़ा कंडा फिर सुलगाने लगी। यह बिब्बो ही थी जो उसकी देवरानी से उस दिन यह भी कह रही थी कि हमारी बेटी किसी दूसरे की सेवा-टहल करने नहीं जाएगी। लेकिन एक नौकरानी से भी बदतर आज की उसकी यह हालत उसे नहीं दिखाई देती। घर में गैस चूल्हा है, पहले उसके विधवा पेंशन से सिलेंडर भराया जाता लेकिन अब वह भी खाली पड़ा रहता है। रसोईं में चूल्हे से उठते धुँएं के बीच वह उस वक्त को कोस रही थी जब एक बार फिर बिब्बो के सामने वह मूक बनी रही। इस बार ससुराल के रिश्ते से मिला उसका अधिकार बेंचा गया था। आठ लाख रुप‌ए में सब बिक गया। बिब्बो ने यह पैसा उसके बैंक खाते में जमा कराया था। 

       अचानक एक दिन भाई का व्यवहार बदल गया था। ‘बहिनो-बहिनो’ कहते न थकने वाला भाई उस दिन अनायास ही उससे झगड़ पड़ा था। उसके कटु शब्दों से सहम गई थी वह। बिब्बो ने इसे ऐसे अनदेखा कर दिया था जैसे वह भी बदल गई हो! भाई को मोटरसाइकिल का शौक पूरा करना था। इसके लिए उसे पचास हजार रुपए चाहिए था। पैसा निकालने वह बैंक नहीं जाना चाहती थी। उसके टालमटोल से भाई चिढ़ गया था। बिब्बो भी भाई की तरफदारी कर रही थी। अंततः मजबूर होकर उसे बैंक जाना पड़ा‌। 

        भाई की नजर अब जैसे उसके पैसों पर ही गड़ी थी। आए दिन वह कोई न कोई फरमाइश करता। बिब्बो भी उसके ही पक्ष में बोलती। वह यह भी फ़िक्र न करती कि सिंहोरा का जीवन लंबा है ये पैसे हारे-गाढ़े उसके काम आएंगे। जबकि यही कहकर तो उसने ससुराल में उसके हिस्से की जमीन बिकवायी थी। आखिर एक दिन बिब्बो की ही शह से भाई ने किसी कागज पर उसका अँगूंठा लगवाया और बैंक से एटीएम कार्ड लाकर उसे दे दिया था। अब वह बैंक चलने के लिए उसकी चिरौरी भी न करता। बस यह कार्ड मांग लेता। कभी वह विरोध करती भी तो बिब्बो यही कहती कि सिंहोरा तेरे आगे-पीछे कोई नहीं है मेरे बाद तेरे भाई ही तेरी सेवा-सहाय करेंगे..भाइयों को नाराज करना ठीक नहीं। यह बिब्बो की सलाह थी या चेतावनी, इसे न समझ पाने पर वह चुप रह जाती। पता नहीं क्या हो गया है बिब्बो को? क्यों बदल गई है वह? इन बातों को सोचकर सिंहोरा तड़प उठी!!

      केवल हाड़-मांस की नहीं बनी वह, सब समझती है! उसके खाते में पैसा जमा होते ही भाई ने बिब्बो का खूब ख़्याल करने लगा था। इधर भाभी भी बिब्बो की तीमारदारी में जुट गई थी। दोनों बिब्बो की मया करने का खूब दिखावा करते और बिब्बो के मन में उसके प्रति द्वेष बढ़ाने के लिए उसके सामने घर के कामों में उसकी खूब कमियाँ निकालते। बिब्बो भी इसे चुपचाप सुनती। धीरे-धीरे बिब्बो उससे चिढ़ी सी रहने लगी थी! तभी तो इस विधवा बेटी से ज्यादा अब उसे अपने बेरोजगार बेटे की चिंता सताने लगी है, नहीं तो उससे एटीएम कार्ड मांगकर वह भाई को न देती! अपनी विवशता और असहायता को समझ यह जानने की अब उसकी इच्छा भी नहीं होती कि खाते में उसके कोई पैसा बचा भी है या नहीं। लेकिन बिब्बो तो उसकी भी माँ है वह ऐसे बदल जाएगी! यह सोचकर उसकी आँखें छलछला आई।

     किस मुँह से अब वह देवर-देवरानी से नाता जोड़े, चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती। चूल्हे में आग भभक उठी, इसके ताप में उसके गाल पर ढुलक आए आँसू लकीर बनकर सूख गए। तवे पर चढ़ी रोटी जलने न पाए उसे अंगुलियों से ही वह पलटने लगी। जबकि उसके बगल में चिमटा अभी भी अनछुआ पड़ा था।  

         मेरे मायके का घर नदी के किनारे गाँव के छोर पर है। बेटे ने कार उसी ओर मोड़ लिया था। लेकिन मुझे मेरे बचपन की सिंहोरा याद आ रही थी। वैसे तो मेरा नाम श्यामला है लेकिन बचपन में सिंहोरा मुझे फूटो या फुटोरा ही बुलाती थी। ककड़ी की एक प्रजाति फूट है वह कहती तेरा नाम इसी फूट पर पड़ा है। बचपन में हम दोनों मक‌ई के खेतों में फूट ढूंढ़ती फिरती, कोई फूट मिलता तो वह मुझे चिढ़ाती, देख फुटोरा फूट.. मैं भी यह सुनकर पहले चिढ़ने का नाटक करती फिर दोनों मिलकर हँस पड़ती।     

       मुझे याद है, हम बच्चियां बाग में साथ मिलकर खेलती। किसी दरख़्त का कोटर हमारे गुड्डे-गुड़ियों का घर बनता। लेकिन सिंहोरा की दिलचस्पी इस खेल में न होती। उसे चिबिद्दी खेलना पसंद था। मेरा मनुहार कर वह मुझे अपने साथ इस खेल में शामिल कर लेती। मैं भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल छोड़ उसके साथ चिबिद्दी खेलने लगती। हम जमीन पर लाईनें खींचकर आठ-नौ आयताकार खाने बनाती। जिसे घर कहतीं। इस घर में खपरैले की एक छोटी चिप्पी फेंककर लंगड़ी टांग से चलकर इसे उठाती। एक घर खाली छोड़ती जिसे लंगड़ी टांग से कूदकर पार करती। सिंहोरा की फेंकी चिप्पी खाने में ही जाकर गिरती‌‌ या उसकी पहुँच में होती और बिना डगमगाए वह चिप्पी उठा लेती‌। इस खेल में संतुलन साध लेने में वह पारंगत थी। कहते हैं जीवन भी एक खेल है, जिसमें संतुलन और नियंत्रण की जरूरत है। लेकिन बेचारी सिंहोरा की भाग्य रेखा में उसकी इस कला के उपयोग की इबारत ही नहीं लिखी थी। लेकिन भाग्य रेखा की कौन कहे वह बेचारी तो किसी पन्ने की इबारत भी नहीं पढ़ सकती थी। बिब्बो भी कहती लड़कियां पढ़-लिखकर चौका-बेलना ही तो करती हैं और हमारी सिंहोरा इसमें होशियार है, घर के सारे काम वह जिम्मेदारी से कर लेती है। शायद यही बात थी कि बिब्बो ने उसे कभी स्कूल जाने के लिए नहीं कहा। 

      लेकिन अनपढ़ होकर भी सिंहोरा गहरे एहसास  वाली थी! वैसे थी तो वह सीधी-सपाट, लेकिन किसी से दबना नहीं जानती थी वह। कोई उस पर हावी हो जाए यह भी उसे पसंद नहीं था! मुझे आज भी याद है एक दिन हम बच्चियाँ पति-पत्नी बनकर नाटक कर रही थी। मैं पति बनी थी और वह पत्नी। मुझे उसपर गुस्सा होना था। लेकिन जैसे ही मैं बनावटी क्रोध कर उस पर चिल्लाई पैर पटकती वह उस खांचे से बाहर आ ग‌ई थी जिसे हमने कोठरी का नाम दिया था। एकदम से वह बोल पड़ी थी,  

       “नहीं खेलना मुझे यह खेल..।” 

      मैं कुछ समझती तब तक वह अपने घर की ओर चल पड़ी थी। वह नाराज है, भान होते ही मैं उसके पीछे भागी थी। और यह बोलते हुए कि “सिंहोरा खेल छोड़कर क्यों जा रही हो? यह सच्ची का डांटना नहीं, खेल है, खेल में क्यों गुस्सा होना? ऐसे में तो खेल बिगड़ जाता है, यह खेल तो हमें ऐसे ही तो खेलना था” मैं दौड़कर उसके आगे जाकर खड़ी हो गई थी‌ और उसके कंधे पकड़कर उसे रोका था। उससे लौटने की खूब मिन्नतें की लेकिन उसकी एक ही रट थी, “नहीं फूटो नहीं.. मुझे नहीं खेलना यह खेल।” मुझे याद है उसके चेहरे पर उस समय न गुस्से वाला भाव था और न ही नाराजगी का। फिर यह सोचकर कि यह खेल उसे पसंद नहीं, मैंने उससे चलकर चिबिद्दी खेलने के लिए कहा था। लेकिन उसने अपने कंधों से मेरे हाथ झटक दिए थे, फिर मैं रुआंसी होकर कान पकड़कर उससे बोली थी, “देख सिंहोरा मैं कान पकड़ती हूँ! सच्ची में तुझे नहीं डाटी थी..मैं भी अब यह खेल नहीं खेलुँगी..तू लौट चल।” लेकिन इस पर भी वह नहीं मानी थी और घर चली गई। फिर कभी वह उस बाग में खेलने आई हो, मुझे याद नहीं।

          सिंहोरा के अन्तर्मन से जैसे मेरे मन का जुड़ाव था तभी तो उसके बिना बाग में खेलना मुझे अच्छा न लगता। वहाँ जाने पर मुझे उदासी घेर लेती। उसे बुलाने उसके घर पहुँच जाती। लेकिन कभी वह रसोईं में तो कभी सिर पर गोबर की टोकरी उठाए घूरे की ओर जाती मिलती और कभी तो भाइयों के साथ खेत में काम कर रही होती। मुझे देखते ही बिब्बो समझ जाती कि मैं सिंहोरा को बुलाने आई हूँ। फिर वह मुझे झिड़कती, तुम्हारी तरह मेरी बेटी नहीं कि दिन भर बस खेलना ही खेलना! मेरी बेटी तो शऊरदार है घर के काम कर रही है..भागो यहां से। बिब्बो मुझे तब बहुत घमंडी लगती। लेकिन सिंहोरा जब कभी रसोईं में रोटी सेंकती मिल जाती तो बिब्बो से नजरें बचाकर मैं रसोईं की पटनी के सहारे खड़ी होकर उससे बतिया लेती। पूँछती, 

       “सिंहोरा, तू खेलने क्यों नहीं चलती?”

      पहले तो वह चुप रहती फिर कुरेदने पर ठेपवा की तरह सयानी बनकर बोलती, “देख फूटो, तू नहीं समझेगी..मुझे घर पर बहुत काम है” फिर वह घर के काम गिनाने लगती। उसकी बातों से लगता जैसे बिब्बो ने ही उसे यह सब सिखाया पढ़ाया है और उसके ही डर से वह खेलने नहीं जाती। 

     धीरे-धीरे अब मैंने भी उस बाग में जाना छोड़ दिया था‌। लेकिन सिंहोरा से मिलने का कोई न कोई बहाना जरूर ढूँढ़ती। उन दिनों गाँव में केवल सिंहोरा के घर ही टीवी था। उसके घर पर लोग ‘रामायण’ देखने इकट्ठा होते‌। मैं भी जाती। वहां सिंहोरा शांत और अलग-थलग सी दिखाई पड़ती। जैसे किसी से घुलना-मिलना उसे अच्छा न लगता हो। मेरे बचपन वाली यह सिंहोरा इस तरह बेजान और असहाय दिखाई पड़ेगी मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था।

             अचानक “मम्मी अब उतरो भी” सुनकर मैं चौंक पड़ी। बेटे ने कार रोकते हुए बोला था। कार से मैं उतरी। बुआ आयी, बुआ आयी कहकर भतीजे, भतीजियां दौड़ पड़े थे। किसी ने बैग उठाया तो किसी ने झोला‌। उनकी खुशी इस बात में थी कि बुआ आयी है तो मिठाई जरूर लाई होगी। मैं घर में चली गई। 

        दिन ढलने को हो आया था। सिंहोरा को लेकर मैं अनमनी थी, सोच रही थी अगले दिन लौटना है तो सिंहोरा से मिलती चलूँ लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रही थी उससे मिलने की! आज देखी उसकी विरूपता को अब फिर दुबारा नहीं देखना चाहती थी। 

        घर के बाहर पेड़ो के बीच पड़े तखत पर आकर मैं बैठ गई। मार्च बीतने को है इन वृक्षों की सिंदूरी कोंपलें धीरे-धीरे हरी हो रहीं हैं। नजर घुमायी तो घर के बगल रास्ते से थोड़ी दूर बहने वाली नदी के दूसरे किनारे पर ध्यान गया‌। वहाँ नदी के करार पर खड़े बड़े-बड़े पेड़ों के पीछे सिंदूरी होते गोल सूरज अपनी दिनभर की थकान मिटाने क्षितिजगामी दिखाई दिए। शहरी जीवन से दूर इस दृश्य में मैं खोई थी कि उस रास्ते से गुजरते ब‌ऊआ ने मुझे देख लिया। सोलह-सतरह साल का यह लड़का गाँव के रिश्ते से भतीजा लगता है। वह मेरे पास आया और पांव छूकर बोला “फुआ पाँव लागी।” आशिर्वाद देते हुए उसे मैंने अपने पास तखत पर बैठा लिया। इधर-उधर गाँव का हाल-चाल पूँछने लगी थी। फिर अचानक से मैंने सिंहोरा के बारे में उससे पूँछ लिया। ब‌ऊआ ने छूटते ही कहा, 

        “अरे फुआ कुछ मत पूँछ...वह बेचारी तो जैसे अब अपने दिन गिन रही है..बताने लगूं तो उसकी एक-एक बात कहानी बन जाए…इससे अच्छा था कि अपने ससुराल ही चली गई होती वह…” 

      ब‌ऊआ ने एक सांस में कह दिया। सोलह-सतरह साल के बच्चे के अंतस में सिंहोरा के लिए करुणा की भावना से उपजी पीड़ा थी। उसके अंतस की इस अनुभूति को समझ मैं उसका मुंह ताकने लगी। सोच रही थी, किसी इंसान में प्रेम या ममत्व जैसी भावना होना उतनी बड़ी बात नहीं जितनी बड़ी बात इंसान का कारुणिक होना! बचपन वाली सिंहोरा की बिब्बो खूब मया करती। लेकिन उस बेटी का जब कोई भविष्य न रहा तो वह अपने बेरोजगार बेटे के भविष्य की चिन्ता में पड़ ग‌ई। उसकी यह चिंता बेटी से उसके प्रेम पर भारी पड़ा। बेटी के दुख से अब वह द्रवित नहीं होती। क्योंकि बिब्बो जैसी स्त्रियां प्रेम और ममत्व जैसे भाव उन्हीं के लिए उड़ेलती हैं जिन्हें वे अपने लिए सुपात्र समझती हैं। उनके अंदर की करुणा भी केवल उन्हीं के लिए उमड़ती है। बाकी के लिए ये क्रूर और संवेदनाविहीन बनी रहती हैं। बिब्बो भी कुछ ऐसी ही एक स्त्री थी। लेकिन क्या पता सिंहोरा ससुराल जाती तो वहाँ भी उसकी ऐसी ही हालत होती। मैं जानती हूँ, अधिकार लेने के पीछे जब लालच का भाव हो तो ऐसी ही परिस्थितियां बनती हैं! वैसे तो सिंहोरा इस बात में निर्दोष ही थी लेकिन इन परिस्थितियों में किसी की निर्दोषिता भी उसके अपने पक्ष में वातावरण सृजित नहीं कर पाती और तब यह बात सच हो उठती है कि दुःख उन्हीं के हिस्से में आता है जो निर्दोष होते हैं!

       “अच्छा फुआ मैं चलता हूँ..” मेरी लंबी चुप्पी देख तखत से उठते हुए ब‌उआ ने मेरे पाँव छूकर कहा। ब‌उआ चला गया था। 

       सूरज धरती की आड़ में समाने जा रहे थे। इधर वातावरण के रंग में भी साँझ की कालिख घुलने लगी थी। यकबयक मेरे कदम सिंहोरा के घर की ओर बढ़ ग‌ए। इन कदमों को उधर जाने से मैं रोक नहीं पाई। उसके घर के सामने सन्नाटा पसरा था। दरवाजे पर कम रोशनी का एक छोटा बल्ब टिमटिमा रहा था। रात घनेरी होने पर यह छोटा बल्ब इस दरवाजे से कितना अँधेरा काट पाता होगा? बल्ब को देखकर मैं सोच रही थी। मुझे घर के अंदर जाने में संकोच हुआ। दरवाजे पर ही खड़ी-खड़ी मैं आहट लेने लगी थी‌। वहां छाए सन्नाटे को टूटता न देख मैं मद्धिम आवाज में पुकार बैठी, सिंहोरा….!!!

       फिर कुछ पल बाद दरवाजे से सटी कोठरी से किसी के पदचाप की आवाज आई। उस अँधेरी कोठरी से एक आकृति निकली, जो धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर लगे बल्ब की रोशनी में आकर खड़ी हो गई! मेरे सामने यह सिंहोरा ही थी!! उसके क्लांत और मलिन चेहरे को देखकर मेरे हृदय में फिर एक हूक उठी! सोचा, आगे बढ़कर इसे अँकवार में भर लूँ। लेकिन उसे निश्चल और भावहीन देख मैं ठहर गई! केवल इतना ही पूँछ सकी मैं, ‘मुझे पहचानी नहीं सिंहोरा..?’  

     “फूटो…!” यह आवाज मूर्तिवत खड़ी सिंहोरा की ही थी..हाँ पहचाना था मुझे!! मेरी दृष्टि उसके चेहरे पर स्थिर हो गई। उसके चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि बचपन में उसके अन्तर्मन के जिन गहरे एहसासों का मैंने अनुभव किया था उसकी वह संवेदनशीलता ही आज उसे प्राणांतक कष्ट का अनुभव करा रही है! मुझे ब‌ऊआ का कहा याद आया कि ‘बेचारी तो जैसे अब अपने दिन गिन रही है‌।” एकदम सच कहा था ब‌उआ ने। सामने खड़ी सिंहोरा को देखकर मुझे भी लगा जैसे इस घर में अब उसके जीवन से प्रेम करने वाला कोई नहीं रह गया है उसकी माँ बिब्बो भी नहीं!!

         “फूटो…तू..अब जा…बिब्बो..तुझे..यहाँ देख लेगी..तो..मुझसे झगड़ा..करेगी..भाई..भी” सिंहोरा की कांपती इस मार्मिक आवाज पर मैंने उसकी आँखों में झाँका! वहाँ अथाह समुंदर की लहरें थी!! वेगवती ये लहरें जैसे मेरी ही ओर बढ़ी आ रही थी। एक पल के लिए मैं स्वयं को सिंहोरा समझ बैठी! मुझे सारे दुनियावी रिश्ते-नाते इन लहरों में डूबते-उतराते दिखाई दिए! सहम ग‌ई थी मैं!! लेकिन इन पलों में ही जैसे हम दोनों ने एक-दूसरे से सब कुछ कह-सुन लिया था। मैं अनबोली उल्टे पाँव वहाँ से लौट पड़ी। 

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